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Jivitputrika Vrat Katha: जीवित्पुत्रिका व्रत 18 सितंबर को, संतान सुख के लिए पूजन के बाद अवश्य पढ़ें ये कथा

जीवित्पुत्रिका व्रत जिसे जितिया या जिउतिया व्रत भी कहते हैं, इस साल 18 सितंबर 2022 को रखा जाएगा। इस कठिन व्रत के दिन माताएं निर्जल रहकर अपनी संतान की खुशहाली और दीर्घायु की कामना करती हैं। वहीं शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि इस कठिन व्रत की पूजा का फल इस कथा को पढ़े बिना अधूरा रहता है…

Sep 16, 2022 / 10:18 am

Tanya Paliwal

Jivitputrika Vrat Katha: जीवित्पुत्रिका व्रत 18 सितंबर को, संतान सुख के लिए पूजन के बाद अवश्य पढ़ें ये कथा

Jitiya Vrat Katha: हिन्दू पंचांग के मुताबिक हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि से लेकर दशमी तिथि तक जितिया पर्व मनाया जाता है। तीन दिनों तक चलने वाले इस कठिन निर्जल व्रत को जीवित्पुत्रिका, जिउतिया या जीमूतवाहन व्रत भी कहते हैं। इस साल 18 सितंबर को जितिया व्रत रखा जाएगा। वहीं 19 सितंबर को व्रत का पारण किया जाएगा। माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना से यह व्रत रखती हैं। वहीं शास्त्रों में मान्यता है कि जीवितपुत्रिका व्रत कथा को पढ़े या सुने बिना इस व्रत का फल अधूरा रहता है। तो आइए जानते हैं जितिया व्रत की पौराणिक कथा…

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

कथा-1

एक पौराणिक कथा के मुताबिक, महाभारत युद्ध में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अश्वत्थामा बहुत गुस्सा हो गया था। उसके मन में बदले की भावना ज्वाला दहक रही थी। इसी बदले की आग में अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में घुस गया जहां पांच लोग सो रहे थे। क्रोधित अश्वत्थामा ने उन लोगों को पांडव समझकर मार डाला। जबकि वे पांचों द्रोपदी की संतानें थीं। इसके बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि भी छीन ली। इस बार प्रतिशोध लेने के लिए अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा की कोख में पल रहे शिशु को मार डाला। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों के फलस्वरूप उत्तरा की कोख में मृत संतान को देकर गर्भ में फिर से जीवित कर दिया। कोख में मरकर फिर से जीवित होने के कारण उस उत्तरा की संतान का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा। मान्यता है कि तब से ही माताओं द्वारा अपने बच्चों की दीर्घायु और मंगलकामना के लिए जितिया का व्रत रखा जाने लगा।

कथा-2
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, गन्धर्वराज जीमूतवाहन एक बहुत ही बड़े धर्मात्मा पुरुष थे। उन्होनें युवावस्था में ही अपना सारा राजपाट त्याग दिया था और वन में अपने पिता की सेवा करने चले गए। एक दिन वन में घूमते हुए जीमूतवाहन को नागमाता मिली जो बहुत रो रही थीं। तब जीमूतवाहन ने नागमाता के इस प्रकार विलाप करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि, वे नागवंश गरुड़ से बहुत दुखी हैं। हमारे नागवंश की रक्षा करने के लिए वंश ने गरुड़ से यह समझौता किया है कि वे हर रोज गरुड़ को एक नाग खाने के लिए देंगे ताकि गरुड़ हम सभी का सामूहिक शिकार न करे। आगे नागमाता ने बताया कि, आज गरुड़ के सामने उनके पुत्र को ले जाया जाएगा।

इस तरह नागमाता का दुख जानकर जीमूतवाहन ने उनसे वादा दिया कि, वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे। इसके बाद जीमूतवाहन स्वयं कपड़े में लिपटकर नागमाता के बेटे की जगह गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट गए, जहां से वह अपना भोजन उठाता था। इसके बाद जब गरुड़ आया तो वह जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबोचकर पहाड़ की तरफ उड़ गया। छटपटाहट की भी आवाज नहीं आ रही। तब अपने संदेह को दूर करने के लिए गरुड़ ने कपड़ा हटाकर देखा तो जीमूतवाहन को पाया। गन्धर्वराज जीमूतवाहन ने पूरी बात गरुड़ को बता दी, तो इसके बाद गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया। साथ ही गरुड़ ने उसे नागों को ना खाने का भी वचन दिया। तब से माना जाता है कि माताएं अपने बच्चों की सलामती के लिए इस व्रत को रखती हैं।

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