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सफलता में आ रही है अड़चन तो जरूर रखना चाहिए ये व्रत, यह है व्रत की कथा

प्रदोष व्रत सभी व्रतों में महत्वपूर्ण है, यह भगवान शिव की पूजा के लिए समर्पित है। इसमें भी गुरु प्रदोष का अपना अलग स्थान है। मान्यता है कि यदि किसी को सफलता पाने में अड़चन आ रही है तो उसे गुरु प्रदोष व्रत जरूर रखना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार कोई व्रत तभी पूर्ण होता है, जब पूजा के समय उसकी कथा पढ़ी जाय तो यहां जानिए गुरु प्रदोष व्रत कथा।

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Pravin Pandey

Jun 15, 2023

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गुरु प्रदोष व्रत 2023 जून 15 मिथुन संक्रांति

कब है गुरु प्रदोष व्रत
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी यानी प्रदोष व्रत की तिथि की शुरुआत 15 जून सुबह 8.32 बजे से हो रही है और यह तिथि 16 जून को सुबह 8.39 बजे तक है। जबकि प्रदोष व्रत पूजा का शुभ मुहूर्त 15 जून को शाम 07.20 बजे से रात 09.21 बजे तक रहेगा।


इन्हें जरूर रखना चाहिए गुरु प्रदोष व्रत
धर्म ग्रंथों के अनुसार जिन व्यक्तियों के जीवन में गुरु अशुभ फल देते दिखाई दें, उन्हें यह व्रत करना चाहिए। इस व्रत को करने से पितरों का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है। यानी सफलता के लिए यह व्रत बहुत लाभकारी है। इस व्रत को रखने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति होती है और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है । मान्यता है इस व्रत से 100 गायों के दान के बराबर पुण्यफल मिलता है।


गुरु प्रदोष व्रत पूजा विधि
1. सुबह जल्दी उठें और स्नान ध्यान कर स्वच्छ कपड़े पहनकर पूजा का संकल्प लें।
2. पूजा स्थल को स्वच्छ करें, बेलपत्र, अक्षत, धूप से शिव-पार्वती की पूजा करें और गंगाजल से शिव का अभिषेक करें
3. यह व्रत निर्जला रखा जाता है, प्रदोषकाल में दोबारा स्नान करें और साफ वस्त्र पहनें।


4. पूजा स्थल को शुद्ध करें, गाय के गोबर से पूजावाली जगह को लीपकर मंडप तैयार करें और इसमें पांच रंग से रंगोली बनाएं।
5. उत्तर पूर्व दिशा में मुंह करके कुश आसन पर बैठकर ऊं नमः शिवाय मंत्र का जाप करते हुए भगवान शिव को जल चढ़ाएं।
6. गुरु प्रदोष व्रत की कथा सुनें।

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गुरु प्रदोष व्रत कथा (Guru Pradosh Vrat Katha)
गुरु प्रदोष व्रत कथा के अनुसार एक समय देवासुर संग्राम छिड़ गया। इसमें देवराज इंद्र और असुरराज वृत्तासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में देवताओं ने दैत्य सेना को पराजित कर दिया। इस पर युद्ध स्थल पर वृत्तासुर आ पहुंचा, उसने माया से विकराल रूप धारण कर लिया। इससे भयभीत देवताओं ने इंद्र के परामर्श से गुरु बृहस्पति का आह्वान किया।


इस पर देव गुरु बृहस्पति ने कहा-हे देवेन्द्र! तुम वृत्तासुर की यह कथा सुनो। पूर्व समय में यह चित्ररथ नाम का राजा था, तुम्हारे समीप जो सुरम्य वन है वह इसी का राज्य था। यह भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है। एक समय चित्ररथ स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर चला गया। यहां भगवान के स्वरूप और वाम अंग में जगदम्बा को विराजमान देख चित्ररथ हंसा और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोला- हे प्रभो। हम माया मोहित हो विषयों में फंसे रहने के कारण स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं, लेकिन देव लोक में ऐसा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि कोई स्त्री सहित सभा में बैठे।


चित्ररथ की ऐसी बात सुनकर सर्वव्यापी भगवान शिव हंसकर बोले कि हे राजन। मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता काल कूट महाविष का पान किया है। फिर भी तुम साधारण जनों की भांति मेरी हंसी उड़ाते हो, तभी पार्वती क्रोधित हो गईं और चित्ररथ की ओर देखते हुई कहने लगीं-ओ दुष्ट तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ मेरी भी हंसी उड़ाई है, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा।

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माता जगदंबा ने कहा कि मैं तुझे वह शिक्षा दूंगी कि तू संतों के मजाक का दुस्साहस नहीं कर सकेगा। अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, तुझे मैं शाप देती हूं कि अभी पृथ्वी पर चला जा। जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को ये शाप दिया तो वह तत्क्षण विमान से गिरकर, राक्षस योनि को प्राप्त हो गया और प्रख्यात महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। महासुर के बाद यह अगले जन्म में तवष्टा ऋषि के श्रेष्ठ तप के बल पर वृत्तासुर के रूप में उत्पन्न हुआ।


यह वृत्तासुर शिव भक्ति में रत रहता था। यह तपस्वी और कर्मनिष्ठ जीवन जिया और बाद में इसने गंधमादन पर्वत पर उग्र तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया। इसलिए मेरे परामर्श से इस पर विजय के लिए तुम्हें गुरु प्रदोष व्रत करना पड़ेगा। गुरु के वचनों को सुनकर सब देवता प्रसन्न हुए और गुरुवार को त्रयोदशी तिथि को (प्रदोष व्रत विधि) विधान से पूजा किया। इसके बाद देवता वृत्तासुर को पराजित कर सके और देवता एवं मनुष्य सुखी हुए। बोलिए भगवान शंकर की जय।