प्राण कई प्रकार के होते हैं जो मन के भावों के साथ गतिशील होते हैं। शरीर की लगभग सभी क्रियाओं पर मन के भावों का प्रभाव पड़ता है। ये प्रभाव ही प्राण पैदा करते हैं।
हमारे यहां दो-तीन अति महत्त्वपूर्ण कहावतें हैं। इनको ध्यान से समझें तो हमें कई प्रकार की जानकारियां मिल सकती हैं।
जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। अन्न का अर्थ भोजन ही नहीं है, सभी भोज्य पदार्थ अन्न का स्वरूप होते हैं। भोजन से शरीर के सप्तधातु बनते हैं और अन्त में मन का निर्माण होता है। भोज्य पदार्थ हमारे मन के निर्माण में सहयोगी होते हैं।
खेल के समय खेल, काम के समय काम। अर्थात्- जो कुछ करो, पूर्ण मनोयोग से करो। जहां मन होगा, वहीं प्राण होंगे। मन, प्राण और वाक् सदा साथ रहते हैं। प्राण होंगे, वहां गतिविधियां चलेंगी। मन कहीं और है तो कार्य सही नहीं होगा।
समय पर भोजन
आप भोजन के समय ध्यान दें तो भूख का आभास पेट में होता दिखाई देगा। भोजन के साथ ही प्राण उसे पचाने को तैयार रहते हैं। इसीलिए समय पर भोजन करने का विशेष महत्त्व है। आप भोजन के साथ पढऩा शुरू कर दीजिए। प्राण मस्तिष्क में चले जाएंगे। भोजन को संभालने वाला कोई नहीं रहेगा। अपच की शिकायत होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार आप विसर्जन की सोचें तब प्राण पेड़ू में पहुंच जाएंगे। विसर्जन कुछ ही समय में एवं पूर्ण होगा। आप शौच के साथ पढ़ाई को जोड़ दें, शौच का समय बढ़ जाएगा। आवश्यकतानुसार प्राण वहां होते ही नहीं। पेट कभी साफ होगा ही नहीं। प्राणों की इस व्यवस्था को हम मन के भावों से कभी अलग नहीं कर सकते। आप पैदल चलिए और बातों में व्यस्त रहिए। जल्दी ही थकान का अनुभव होगा अथवा शाम को जल्दी थकान महसूस होने लगेगी। चलने के लिए प्राणों का पांवों में रहना आवश्यक है। वे ही ऊर्जा देते हैं।
काम कोई भी हाथ में हो, सफलता का एक ही सूत्र है-पूर्ण मनोयोग। कार्य में मन के जुड़ते ही आपकी दृष्टि की स्पष्टता बढ़ जाती है। कार्य की बारीकियों पर स्वत: ही ध्यान गहरा होता जाता है। अत: आधे-अधूरे मन से कार्य नहीं करना चाहिए। इससे अच्छा तो यह है कि कार्य किया ही नहीं जाए। आप किसी से बात करते रहें और ध्यान कहीं और लगा रहे तो आपको अनुमान हो जाएगा कि परिणाम क्या रहा।
यह भी सच है कि हर व्यक्ति का मन हर विषय पर नहीं लगता। इसमें जोर-जबरदस्ती भी नहीं चल सकती। मनोवैज्ञानिक इसी आधार पर व्यक्ति की अभिरुचि का पता लगाते हैं और कार्य विशेष पर उसको नियुक्त करते हैं।
दूषित अन्न भी भावों को दूषित करता है, अत: अन्न के अनेक प्रकार के दोष बताए गए हैं। आप व्यवहार में अनेक प्रकार के नियम-कायदे अलग-अलग सम्प्रदायों में देख सकते हैं। अन्न के साथ तो दृष्टि दोष का भी बड़ा महत्त्व माना गया है। यही कारण है कि घर से बाहर खाना खाने को हमारे यहां कभी उचित नहीं माना गया। दोषयुक्त अन्न भावना में विकृति बनाए रखता है। इस बारे में एक दृष्टान्त बहुत प्रचलित है।
एक शिष्य किसी के घर खाना खाने गया। वहां सभी बर्तन चांदी के थे। उसका मन ललचा गया और उसने एक चम्मच अपनी जेब में रख ली। रास्ते में उसे ध्यान आया कि उसने यह अपराध किया है जो उसके लिए उचित नहीं है। उसने अपने गुरु को सारी बात बता दी। गुरु ने कहा कि जो अन्न तुम्हारे पेट में गया, वह उस व्यक्ति का था। वह एक पश्च्यहर था। ‘पश्च्यहर’ उसे कहते हैं जो आपकी आंख के सामने ही चोरी कर ले। अत: तुम्हारे मन में दोष आना स्वाभाविक ही था। तुम वापस जाओ और उस व्यक्ति को चम्मच लौटा दो। तुम्हारे लिए यही उचित है।
शरीर का निरीक्षण
आज के अर्थप्रधान युग में, जहां अन्न के लिए क्या नहीं किया जाता, यह दृष्टान्त महत्त्वपूर्ण है। आज समाज में अपराध क्यों बढ़ रहे हैं, उसकी झलक भी यहां मिल रही है। स्पष्ट है—साधन दूषित हों तो साध्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
हमारी उपासना पद्धति के मूल में भी यही मन है। हमारा मन लगता है या नहीं, परिणाम उसी के अनुसार आते हैं। मन को नियन्त्रित करने के अनेक प्रकार के अभ्यास सिखाए जाते हैं। आज तो पश्चिम में भी अनेक संस्थान इस प्रकार का प्रशिक्षण देने लगे हैं। मंत्रों के जप की प्रक्रिया हो अथवा ध्यान की, सब मन से ही जुड़ा है। ‘शरीर प्रेक्षा’ में व्यक्ति मन लगाकर शरीर के विभिन्न अंगों का निरीक्षण करता है और अपने स्वास्थ्य की जानकारी करता है। रुग्ण स्थान पर मन को केन्द्रित करके वहां रक्त संचार बढ़ाया जाता है। श्वेत रक्त कणों की संख्या बढ़ाई जाती है। ऊर्जा का संकलन किया जाता है और नियमित अभ्यास से व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ कराया जाता है। शरीर के विभिन्न चक्रों पर ध्यान की परम्परा भी मन पर ही आधारित है। प्राणों को सघन रूप में एक ही स्थल पर सक्रिय करके विशेष ऊर्जा पैदा की जाती है। यदि मन साथ नहीं जुड़े तो आप कभी भी ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते। मन्दिर में भी जरूरी नहीं कि आपका ध्यान मूर्ति पर टिका ही रहे।
घर से तो इसीलिए निकलते हैं, किन्तु वहां कुछ कितना समय हमारा ध्यान टिकता है यह हमारे मन पर ही निर्भर करता है। आप कभी भीड़ को देखते रहेंगे तो कभी प्रसाद, फूल, पैसे आदि आपके ध्यान में रहेंगे। किन्तु; जिसको मूर्ति से जुडऩा है, वह कहीं भी नहीं अटक सकता। बिना मूर्ति से जुड़े आपको परिणाम कैसे मिलेंगे?
अभिप्राय यह है कि हमारे मनोभाव ही हमारे जीवनक्रम का संचालन करते हैं और वे ही परिणाम के लिए सक्षम भी होते हैं। आवश्यकता केवल कार्य के साथ मन और प्राण को जोड़े रखने की है। हर कार्य में सफलता अवश्य ही मिलेगी।