एक संन्यासी किसी राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा।
जैसलमेर•Apr 06, 2018 / 09:58 am•
सुनील शर्मा
एक संन्यासी किसी राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा। राजा ने एक पल सोचा और कहा,‘जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।’ संन्यासी ने उत्तर दिया, लेकिन खजाना तुम्हारी संपत्ति नहीं है, वह तो राज्य का है और तुम मात्र उसके संरक्षक हो।’ राजा बोले, ‘महल ले लीजिए।’ इस पर संन्यासी ने कहा, ‘यह भी तो प्रजा का है।’
राजा बोले, ‘तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा है और आपको देने लायक हो?’ संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार यश का नाश करता है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार में व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न देखता है, ईर्ष्या कर बैठता है। हम अपनी कल्पना में पूरे संसार से अलग हो जाते हैं। ऋजुता, मृदुता और सहिष्णुता हमें यह विचार देती है कि हम पूर्ण स्वतंत्र एक द्वीप की भांति हैं। यहां सभी एक-दूसरे पर निर्भर रहते हुए, सह-अस्तित्व और सहभागिता में जीते हैं।’ राजा संन्यासी का आशय समझ गए और उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अहंकार को निकाल कर रहेगा।
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