अर्थात् कार्य के लिए प्रयत्न करने से वह पूर्ण होता है, न कि सिर्फ उसके लिए कामना करने से, जिस प्रकार से सोते हुए सिंह के मुख में स्वयं से मृग नहीं जाता, उसे भी अपने भोजन के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि कहते हैं कि जीवन की चुनौतियों से मुक्ति सुखद परिवेश के सृजन का मूल मनुष्य का पुरुषार्थ ही है। पुरुषार्थी के लिए जीवन का प्रत्येक क्षण सर्वोत्तम है, जहां जीवन को सुखमय बनाने के लिए अनेक उद्यम किए जा सकते हैं। अतः सत्कर्म पारायण रहें।
आचार्य अवधेशानंद यह भी कहते हैं कि आपका वर्तमान भूतकाल की देन है। इसी तरह जैसे श्रेष्ठ भविष्य के निर्माण की आप कल्पना करते हैं, उसके लिए उसी तरह के प्रचंड पुरुषार्थ और श्रम साधना को करना होगा। उनका कहना है कि मनुष्य क्या देवता भी इस पुरुषार्थ के अधीन है।
गोस्वामी तुलसी दासजी ने बी इस को बखूबी समझाया है। वे सकल पदारथ एहि जग माहीं, करम हीन नर पावत नहीं, दोहे में कहते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं वह इस संसार में ही हमें प्राप्त हो जाएगा, बशर्ते उसके लिए हम प्रयत्न करें। क्योंकि बिना प्रयत्न किए कोई भी चीज हमें मिलने वाली नहीं है। भारतीय ग्रंथों में संसार को कर्म भूमि कहा गया है, इसका अर्थ है कि यह हर जीव कर्म के लिए ही आया है और कर्म ही उसे करना है, उसी अनुरूप उसे फल मिलना है। हालांकि फल पर उसका वश नहीं है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषुकदाचन् माकर्मफलहेतुर्भूमातेसंगोस्त्वकर्मणि में भी यही उद्घोष किया है।