ये तो बालकों के खिलौनों की तरह हैं। ज्ञान होने पर बालक उन खिलौनों की जिस प्रकार परवाह नहीं करते, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुंचे हुए लोगों को उक्त साधनों का महत्व नहीं प्रतीत होता किसी खास मत पन्थों को बिना जाने बूझे ज्ञान होने पर भी मानते रहना, बचपन का कुर्ता युवावस्था में पहनने की इच्छा करने के बराबर उपहास के योग्य है। मैं किसी धर्म पन्थ का विरोधी नहीं हूं और न मुझे उनकी अनावश्यकता ही प्रतीत होती है। पर यह देखकर हंसी रोके से भी नहीं रुकती कि कुछ लोग स्वयं जिस धर्म के रहस्यों को नहीं जानते उसे वे यदि अपना अमूल्य समय इस अध्याषारेघु व्यौपार के बदले उन्हीं तत्वों के जानने में लगावें तो क्या ही अच्छा हो।
अनेक धर्मपन्थ उन्हें क्यों खटकते हैं सो मेरी समझ में नहीं आता ! लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म का अनुसरण करें तो किसी का क्या बिगड़ेगा? एक व्यक्ति के लिये स्वतन्त्र धर्म हो तो भी मेरी समझ में कोई हानि नहीं किन्तु लाभ ही। क्योंकि विविधता से संसार की सुन्दरता बढ़ती है। उदर तृप्ति के लिये अन्न की आवश्यकता है, परन्तु एक ही रस की अपेक्षा अनेक रसों के विविध पदार्थ होने से भोजन में अधिक रुचि आती है। कोई ग्रामीण, जिसे तरह-तरह के पदार्थ मत्सर नहीं और जो केवल रोटी तथा प्याज के टुकड़े से पेट भर लेता है यदि किसी शौकीन के खाने के नाना पदार्थ की निन्दा करे तो वह खुद जिस प्रकार उपहास के पात्र होगा, उसी प्रकार एक ही धर्मविधि के पीछे लगे हुए दूसरे धर्मों की निन्दा करने वाले लोग स्तुति के पात्र नहीं हो सकते।