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इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। परन्तु आडम्बर में घिरे कई वेशधारी संन्यासी उन्हें उपेक्षा की नजर से देखते। यहां तक कि उन्हें समझ में ही नहीं आता था कि वे महर्षि जन इस राजा को इतना सम्मान क्यों देते हैं? ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से यह सच्चाई छुपी न रही। उन्होनें इन आडम्बर धारियों की समस्या का निराकरण करने के लिए शिविर स्थल में अपने तपोबल से आग लगा दी।
आग लगते ही सबकी झोपड़ियाँ जलने लगी। जिस समय आग लगी, उस समय वेदान्त का प्रवचन चल रहा था। आत्मज्ञान की चर्चा के समय आग लगने से सभी संन्यासी घबरा गये। उन्हें अपनी लंगोटी व कमण्डलु की चिन्ता होने लगी। ये सभी प्रवचन को छोड़कर अपना सामान बचाने के लिए भागे। इस सारे खेल में ब्रहर्षि विश्वामित्र हंस रहे थे।
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यह आग बढ़ती गयी। राजा जनक भी वहीं बैठे थे। परन्तु उनके चित्त में स्थिरता थी। वह बिना किसी परेशानी के वेदान्त चर्चा में भाग ले रहे थे। ब्रहर्षि विश्वामित्र ने उन्हें चेताया- महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है?
महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है- मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किंचन केवल मिथिला नगरी जल रही है, मेरा कुछ नहीं जल रहा है। जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू की कृपा से क्या नहीं हो सकता।
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