कई बार सदाचारी समझे जाने वाले लोग आश्चर्यजनक दुष्कर्म करते पाए जाते हैं । उसका कारण यही है कि उनके भीतर ही भीतर वह दुष्प्रवृति जड़ जमाए बैठी रहती है। उसे जब भी अवसर मिलता है, नग्न रूप में प्रकट हो जाती है। जैसे, जो चोरी करने की बात सोचता रहता है, उसके लिए अवसर पाते ही वैसा कर बैठना क्या कठिन होगा। शरीर से ब्रह्मज्ञानी और मन से व्यभिचारी बना हुआ व्यक्ति वस्तुत: व्यभिचारी ही माना जाएगा। मजबूरी के प्रतिबंधों से शारीरिक क्रिया भले ही न हुई हो, पर वह पाप सूक्ष्म रूप से मन में तो मौजूद था । मौका मिलता तो वह कुकर्म भी हो जाता ।
इसलिए प्रयत्न यह होना चाहिए कि मनोभूमि में भीतर छिपे रहने वाले दुर्भावों का उन्मूलन करते रहा जाए । इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियॉ एवं बुराइयॉ दिखाई दें, तो उनके विरोधी विचारों को पर्याप्त मात्रा में जुटा कर रखा जाय और उन्हें बार-बार मस्तिष्क में स्थान मिलते रहने का प्रबंध किया जाए । कुविचारों का शमन सद्विचारों से ही संभव है ।
उपरोक्त बुराइयों से बचने एक मात्र सरल उपाय यह हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे में कम से कम आधा/एक घंटा महापुरूषों के दिव्य विचारों से, रामायण जैसे महान ग्रंथ से या फिर भगवत गीता के दिव्य ज्ञान से अपने अपने मन को स्नान कराना ही चाहिए । क्योंकि ऐसा नियमित करते रहने से कुविचारों, दुर्भावों से कोई भी व्यक्ति व्यभिचारी बनने से बच सकता हैं ।