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विचार मंथन : रजस्वला स्त्री को भोजन नहीं बनाना चाहिए, पूजा-पाठ यज्ञादि में भाग नहीं लेना और मंदिर में भी प्रवेश नहीं करना चाहिए- लिंगपुराण

रजस्वला स्त्री अपवित्र क्यों होती है- लिंगपुराण

Apr 30, 2019 / 03:28 pm

Shyam

daily thought

विचार मंथन : रजस्वला स्त्री को भोजन नहीं बनाना चाहिए, पूजा-पाठ यज्ञादि में भाग नहीं लेना और मंदिर में भी प्रवेश नहीं करना चाहिए- लिंगपुराण

रजोदर्शन क्या है?

इस विषय का विवेचन करते हुए भगवान धन्वन्तरि ने सुश्रुत शारीरस्थान में लिखा है।
मासेनोपचितं काले धमनीभ्यां तदार्तवम्।
ईषत्कृष्ण विदग्धं च वायुर्योनिमुखं नयेत।।

अर्थात् – स्त्री के शरीर में वह आर्तव (एक प्रकार का रूधिर) एक मास पर्यन्त इकट्ठा होता रहता है। उसका रंग काला पड़ जाता है। तब वह धमनियों द्वारा स्त्री की योनि के मुख पर आकर बाहर निकलना प्रारम्भ होता है, इसी को रजोदर्शन कहते हैं।

 

 

रजोदर्शन, स्त्री के शरीर से निकलने वाला रक्त काला तथा विचित्र गन्धयुक्त होता है। अणुवीक्षणयन्त्र द्वारा देखने पर उसमें कई प्रकार के विषैले कीटाणु पाये गए है। दुर्गंधादि दोषयुक्त होने के कारण उसकी अपवित्रता तो प्रत्यक्ष सिद्ध है ही। इसलिए उस अवस्था में जब स्त्री के शरीर की धमनियां इस अपवित्र रक्त को बहाकर साफ करने के काम पर लगी हुई है और उन्हीं नालियों से गुजरकर शरीर के रोमों से निकलने वाली उष्मा तथा प्रस्वेद के साथ रज कीटाणु भी बाहर आ रहे होते हैं, ऐसे में यदि रजस्वला स्त्री के द्वारा छुए जलादि संक्रमित हो जाते हैं तथा अन्य मनुष्य के शरीर पर भी अपना दुष्प्रभाव डाल सकते हैं।

 

वैज्ञानिक तथ्य

पाश्चात्य डॉक्टरों ने एक अनुसंधान में पाया कि रजस्वला के स्राव में विषैले तत्व होते हैं। एक शोध में पाया गया कि रजस्वला स्त्री के हाथ में कुछ ताजे खिले हुये फूल रखते ही कुछ ही समय में मुरझा जाते हैं। रजस्वला स्त्री का प्रभाव पशुओं पर भी पड़ता है, कुछ पशुओं की तो हृदय गति अचानक मन्द हो जाती है। यह सब परिक्षण किए गए प्रयोग है। इसलिए रजस्वला स्त्री को उस दुर्गंध तथा विषाक्त किटाणुओं से युक्त रक्त के प्रवहरण काल में किसी साफ सुथरी, पवित्र वस्तुओं को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

 

अपने घर में भी प्रयोग कर सकते हैं-

आप घर पर भी कुछ प्रयोग कर सकते हैं – जैसे तुलसी या किसी भी अन्य पौधे को रजस्वला के पास चार दिनों के लिए रख दिजीये वह उसी समय से मुरझाना प्रारंभ कर देंगे और एक मास के भीतर सूख जाएंगा।

 

रजस्वला धर्म संतानोत्पति का प्रथम चरण है

इसलिए कहा जाता है कि रजोदर्शन एक प्रकार से स्त्रियों के लिए प्रकृति प्रदत्त विरेचन है। ऐसे समय उसे पूर्ण विश्राम करते हुए इस कार्य को पूरा होने देना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो कभी कभी दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। अतः अनिवार्य है कि रजस्वला स्त्री को पुर्ण सम्मान से आराम कराना चाहिए। उन 4 – 5 दिनों तक वह दिन में शयन न करें, रोवे नहीं, अधिक बोले नहीं, भयंकर शब्द सुने नहीं, उग्र वायु का सेवन तथा परिश्रम न करें क्योंकि हमारे और आपके भविष्य के लिए यह जरूरी है क्योंकि रजस्वला धर्म संतानोत्पति का प्रथम चरण है।

 

लिंगपुराण
इस विषय पर लिंगपुराण के पूर्वभाग अध्याय 89 श्लोक 99 से 119 में बहुत ही विशद वर्णन किया गया है। उसमें रजस्वला स्त्री के कृत्य और इच्छित संतानोत्पति के लिए इस कारण को उत्तरदायी बताया गया है इससे शरीर शुद्धि होती है।

 

इतना तो करना ही चाहिेए

लिंगपुराण के अनुसार, रजस्वला स्त्री को भोजन नहीं बनाना चाहिए, पूजा-पाठ यज्ञादि में भाग नहीं लेना चाहिए, मंदिर में इसलिए प्रवेश नहीं करना चाहिए- इसका बहुत बड़ा कारण है कि मंदिर की औरा शक्ति बेहद सघन होता है, हम जो भी पूजा पाठ घर पर करते है, उसकी सात्विक ऊर्जा मंदिर से बेहद कम होती है। जब भी शरीर से स्राव (विरेचन) होता है, उस व्यक्ति की सात्विक ऊर्जा घट जाती है। मासिक स्राव द्वारा जैसे ही यह वेस्टेज शरीर से बाहर निकलता है, हमारा शरीर पुनः ऊर्जा से भर जाता है।

 

जब भी मंदिर के भीतर बहने वाली चुम्बकीय तरंगों को काटा जाता है तो उसका प्रभाव काटने वाली वस्तु पर भी होता है। इसलिए मंदिरों में एक नियम बनाया गया कि स्त्री मासिक धर्म के दौरान अपनी तामसिक या राजसिक तरंगों से मंदिर की औरा प्रभावित ना करे, बल्कि उन दिनों विश्राम करे, विरेचक पदार्थ को निकलने के बाद ही मंदिर में प्रवेश करे। रक्त स्राव के दिनों में कोई भी वस्तु प्रभु को अर्पण नहीं करनी चाहिए।।

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