पं. मोतीलाल जी शास्त्री ने गौ का वैज्ञानिक विवेचन किया है। उसका संक्षिप्त सार यहां प्रस्तुत है। शास्त्री जी का यह तात्विक विवेचन गौ की उपलब्धता सातों लोकों में सिद्ध करता है। परमेष्ठी (गोलोक) से चलकर गाय के रूप में इसी तत्त्व ने स्थूलत्व धारण किया है।
प्राणलक्ष्मी…
प्राणलक्ष्मी को ही ‘तदु प्राणा वै श्रिय:’ रूपेण -‘श्री’ कहा गया है, एवं भूतलक्ष्मी ही ‘लक्ष्मी’ नाम से प्रसिद्ध हुई है। ‘इन्द्रप्राणात्मक-गौपशु’। इन्द्र प्राणात्मक-सूर्य ‘गौ’ नाम से प्रसिद्ध है। यही इन्द्र अपने उक्थ रूप से गौतत्त्व का संरक्षक भी बना हुआ है। अधिदैवत-अध्यात्म-अधिभूत से सम्बन्ध रखने वाली सामान्य परिभाषा के अनुसार ‘गौ’ शब्द भी तीनों प्राजापत्य विवर्तों में भुक्त हो रहा है। भारतीय-संस्कृति के मूल स्तम्भ ‘वेद, ब्राह्मण, गौ’ ये तीन ही तो तत्त्व माने गए हैं।
प्राणलक्ष्मी को ही ‘तदु प्राणा वै श्रिय:’ रूपेण -‘श्री’ कहा गया है, एवं भूतलक्ष्मी ही ‘लक्ष्मी’ नाम से प्रसिद्ध हुई है। ‘इन्द्रप्राणात्मक-गौपशु’। इन्द्र प्राणात्मक-सूर्य ‘गौ’ नाम से प्रसिद्ध है। यही इन्द्र अपने उक्थ रूप से गौतत्त्व का संरक्षक भी बना हुआ है। अधिदैवत-अध्यात्म-अधिभूत से सम्बन्ध रखने वाली सामान्य परिभाषा के अनुसार ‘गौ’ शब्द भी तीनों प्राजापत्य विवर्तों में भुक्त हो रहा है। भारतीय-संस्कृति के मूल स्तम्भ ‘वेद, ब्राह्मण, गौ’ ये तीन ही तो तत्त्व माने गए हैं।
अधिदैवत में स्वायम्भुव ‘ऋषिप्राण’ ही प्रथम एवं प्रमुख गोतत्त्व है। यहीं ब्रह्मनि:श्वसित नामक अपौरुषेय वेदतत्त्व प्रतिष्ठित है। तदनुगत युज:प्राण का ही नाम ‘ऋषि’ है। ‘यदरिषन्’ ही ‘ऋषि’ शब्द का निर्वचन है। (शत. ६/१/१/१)। ‘प्राण वा ऋषय:’ प्रसिद्ध है। ‘यत्-जू’ रूप युज: का ‘यत्’ रूप प्राण ही गतिरूप ऋषि है और ‘गच्छति’ निर्वचन से यही ऋषिप्राण ‘गौ:’ है। स्वयंभू ब्रह्मा ही विश्व की मूलप्रतिष्ठा रूप ब्राह्मण हैं। और यों स्वायम्भुव विवर्त ही क्रमश: वेद-ब्राह्मण-गौ भावों में परिणत हो रहा है।
स्वयंभू से आपोमय परमेष्ठी का आविर्भाव हुआ। पारमेष्ठ्य वेद सोमात्मक अथर्ववेद कहलाया। पारमेष्ठ्य प्राण ‘पितर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। यही सौम्य पितर प्राण मनोता विज्ञान के अनुसार ‘इट्’ रूप ‘अन्न’ कहलाया, और इसी आधार पर ‘इडा हि गौ:’ (शत. २/३/४/३४) ‘अन्न वै गौ:’ (शत. ४/३/४/२५) इत्यादि निगम प्रसिद्ध हुए। परमेष्ठ्य गौप्राण ही ‘इट्’ रूपेण पार्थिव औषधि-वनस्पति रूप भूतान्न का आधार बनता है।
पारमेष्ठ्य आपोमय मण्डल ही अक्षरविद्या से विष्णुधाम कहलाया है। यहीं वह सौम्य गौप्राण प्रतिष्ठित है, जो पितरप्राण से अभिन्न है। स्वयंभू का ऋषिप्राण ही परमेष्ठी में आकर ‘पितर’ बन गया है। (ऋषिभ्य: पितरो जाता:-मनु:) स्वायम्भुवी ब्रह्मगवी ही परमेष्ठी में इट्रूप से ‘विष्णुगवी’ बन गई। इसी सौम्य गौ के सम्बन्ध से परमेष्ठी विष्णु-‘गोसव’ कहलाया है, जो पुराण में ‘गोलोक’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘व्रजं गच्छ गोष्ठानम्’ इत्यादि गोलोक ही विष्णु का यह व्रजधाम कहलाया है। सौम्य रश्मियों से भूरिशृङ्गा बनी हुईं प्राणरूपा गोमाताएं इसी व्रजधाम में स्वच्छन्द विचरण करती रहती हैं।
या ते धामान्युष्मसि गमध्यै यत्र
गावो भूरिशृङ्गा अयास:।
अत्राह तदुरु गायस्व विष्णो: परमं
पदमव भारि भूति ॥ यजु:-६/३ स्वयं भू के त्रयीवेद रूप ब्रह्मपुरुष तथा अथर्ववेद रूपा सुब्रह्म प्रकृति, दोनों के दाम्पत्य से दशावयव जो विराट् पुत्र आविर्भूत हुआ, उसी का नाम ‘सूर्यनारायण’ है। विराट् सूर्य में वही पारमेष्ठ्य गौतत्त्व विराट् रूप में परिणत हो जाता है। जिसका अर्थ है-आदित्य। पारमेष्ठ्य पितर प्राण ही सौर देव प्राण रूप में परिणत हुआ है। (पितृभ्यो देवमानवा:-मनु:)। पारमेष्ठ्य-गौतत्त्व ही सौरमण्डल का सर्जक बनता हुआ ‘तत्सृष्ट्वा’ न्याय से सौर विराट् मण्डल में प्रविष्ट होता हुआ सौर इन्द्र प्राण से समन्वित होता जाता है। अतएव सौर इन्द्र प्राण-विराट्-आदित्य ‘गौ’ नाम से प्रसिद्ध होता जाता है। ‘विराट् वै गौ:’ (यजु. सं. १३/४३ शत.७/५/२/१९) ‘गावो वा आदित्य:’ (ऐ.ब्रा. ४/१७) इत्यादि वचन इसी ऐन्द्री-सौरी-गौ की महिमा कर रहे हैं।
गावो भूरिशृङ्गा अयास:।
अत्राह तदुरु गायस्व विष्णो: परमं
पदमव भारि भूति ॥ यजु:-६/३ स्वयं भू के त्रयीवेद रूप ब्रह्मपुरुष तथा अथर्ववेद रूपा सुब्रह्म प्रकृति, दोनों के दाम्पत्य से दशावयव जो विराट् पुत्र आविर्भूत हुआ, उसी का नाम ‘सूर्यनारायण’ है। विराट् सूर्य में वही पारमेष्ठ्य गौतत्त्व विराट् रूप में परिणत हो जाता है। जिसका अर्थ है-आदित्य। पारमेष्ठ्य पितर प्राण ही सौर देव प्राण रूप में परिणत हुआ है। (पितृभ्यो देवमानवा:-मनु:)। पारमेष्ठ्य-गौतत्त्व ही सौरमण्डल का सर्जक बनता हुआ ‘तत्सृष्ट्वा’ न्याय से सौर विराट् मण्डल में प्रविष्ट होता हुआ सौर इन्द्र प्राण से समन्वित होता जाता है। अतएव सौर इन्द्र प्राण-विराट्-आदित्य ‘गौ’ नाम से प्रसिद्ध होता जाता है। ‘विराट् वै गौ:’ (यजु. सं. १३/४३ शत.७/५/२/१९) ‘गावो वा आदित्य:’ (ऐ.ब्रा. ४/१७) इत्यादि वचन इसी ऐन्द्री-सौरी-गौ की महिमा कर रहे हैं।
सौरमण्डल में सूर्य रूप द्युलोक, चान्द्र अन्तरिक्षलोक एवं भौम पार्थिवलोक, ये तीन रोदसी लोक प्रतिष्ठित हैं, जिसमें क्रमश: १२ आदित्य, ११ रुद्र, ८ वसु प्राण देवता प्रतिष्ठित हैं। इन त्रैलोक्य प्राण देवताओं के विभेद से सौरमण्डल अनुगत साहस्री गौ इस प्रकार से तीन संस्थानों में विभक्त हो जाती है, जो क्रमश: आदित्यागौ:, रौद्रीगौ: वासवीगौ: नाम से प्रसिद्ध है।
पार्थिव वस्वग्नि से अनुप्राणित ३३३ महिमा भावों में विभक्त वही सौरी प्राण गौ: ‘आग्नेयी वै गौ:’ (शत. ७/५/२/९) रूपेण ‘आग्नेयी’ है। आन्तरिक्ष्य रुद्र प्राण वायु से समन्विता, ३३३ भावों में विभक्ता वही सौरी गौ ‘रौद्री वै गौ:’ (तै. ब्रा. २/२/५/२) के अनुसार ‘रौद्री’ है एवं सौर-दिव्य द्वादश आदित्य प्राण देवों से समन्वित ३३३ भावों में विभक्त वही सौरी गौ ‘आदित्य वै गौ:’ (ऐ. ब्रा. ४/१७) इत्यादि रूप से ‘आदित्या:’ हैं। एकसहस्र भावापन्न गौप्राणों से यों तीन स्थानों में ९९९ गौ प्राणों का समन्वय हो रहा है। शेष सर्वाधार भूता गौ ही वह पारमेष्ठिनी अमृतगवी कामधेनु है। त्रैलोक्य व्याप्ति के कारण ही सौरी ऐन्द्रीगौ के सम्बन्ध में ‘अन्तरिक्षं गौ:’ (ऐ. ब्रा. ४/१५) इत्यादि निगम प्रसिद्ध हैं। सौर इन्द्र ‘मघवा’ हैं, आन्तरिक्ष्य इन्द्र ‘मरुत्त्वान्’ हैं, पार्थिव इन्द्र ‘वासव’ है। त्रिरूप से व्याप्त सौर इन्द्र और त्रिस्थानों में व्याप्त गौप्राण अभिन्न हैं। इसी सौरी ऐन्द्री गौ का (तीनों महिमाभावों के साथ) तीनों प्राणों के समन्वय से ही कृतात्मा बनी हुई है। माता गौ की ओर संकेत करते हुए प्राणगौ के द्वारा प्राणी गौ की अभिन्नता प्रतिपादित करते हुए ही ऋषि कह रहे हैं-
माता रुद्राणां, दुहिता वसूनां, स्वासादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा
गामनामदितं वधिष्ट॥
(ऋक्संहिता ८/१०१/१५) आधिदैविक-प्राणात्मक-ऋषि-पितर-देव-इन्द्र-वसु-रुद्र-आदित्य आदि दिव्यभाव समन्विता, सुप्रसिद्ध ‘गौभूतपशु’ रूपा गौमाता के प्राणस्वरूप की ओर मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए ऋषि कहते हैं कि, ‘जिसे तुम ‘गौपशु’ समझ रहे हो, वह पशु नहीं है। अपितु यह तो रुद्रों की माता है, वसुओं की कन्या है, आदित्यों की **** है एवं जीवनीय-पारमेष्ठ्य-अमृत सोमरस का केन्द्र हैं। मैंने (ऋषि ने) प्रज्ञाशील (समझदार) मानव को कह दिया है कि, यह गौ अदिति रूपा है। (क्योंकि इसे कष्ट पहुंचाना अपने जीवन को, प्राण को, सर्वस्व को ही अपने हाथों नष्ट कर लेना है।)’। पारमेष्ठ्या सरस्वती वाक् भी गौ प्राण से ही समन्वित है। (सरस्वती हि गौ:) यजु. ३८/२। गौमाता की भौतिक उपयोगिता के सम्बन्ध में तो किसी भी भूतविज्ञानवादी, किन्तु प्रज्ञाशील को तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता। ‘तत्र गव्यं तु जीवनीयं रसायनम्’ रूप से भारतीय आयुर्वेदशास्त्र ने भी गौपशु का महत्व स्वीकार किया गया है।
अध्यात्म में बुद्धि सौर इन्द्र प्राणमयी है, प्रज्ञानमन आन्तरिक्ष्य मरुत्त्वान् इन्द्र प्राणमय है एवं भूत शरीर वासवेन्द्र प्राणमय है। अतएव मानव संस्था के सभी प्रतिष्ठात्मक प्राण गौरूप हैं। तभी तो ऐन्द्रियक विषयों को ‘गोचर’ कहा गया है। इन्द्र सम्बन्ध से ही इन्हें ‘इन्द्रिय’ कहा गया है। ‘इन्द्रियं वै वीर्य गाव:’ (शत. ५/४/३/१०) श्रुति गौतत्त्व की आध्यात्मिकता का भी समर्थन कर रही है। अधिदैवता रूप ईश्वरीय संस्था में, अध्यात्म रूपा प्राणी संस्था में, तथा अधिभूत रूपा स्थावर संस्था में, सर्वत्र गौतत्त्व प्राधान्य, इन्द्रप्राधान्य प्रमाणित हो रहा है। ऐसे सर्वप्रतिष्ठिता गौप्राण की प्रधानता से ही अमुक पार्थिव दिव्य पशु ‘गौपशु’ कहलाया।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा
गामनामदितं वधिष्ट॥
(ऋक्संहिता ८/१०१/१५) आधिदैविक-प्राणात्मक-ऋषि-पितर-देव-इन्द्र-वसु-रुद्र-आदित्य आदि दिव्यभाव समन्विता, सुप्रसिद्ध ‘गौभूतपशु’ रूपा गौमाता के प्राणस्वरूप की ओर मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए ऋषि कहते हैं कि, ‘जिसे तुम ‘गौपशु’ समझ रहे हो, वह पशु नहीं है। अपितु यह तो रुद्रों की माता है, वसुओं की कन्या है, आदित्यों की **** है एवं जीवनीय-पारमेष्ठ्य-अमृत सोमरस का केन्द्र हैं। मैंने (ऋषि ने) प्रज्ञाशील (समझदार) मानव को कह दिया है कि, यह गौ अदिति रूपा है। (क्योंकि इसे कष्ट पहुंचाना अपने जीवन को, प्राण को, सर्वस्व को ही अपने हाथों नष्ट कर लेना है।)’। पारमेष्ठ्या सरस्वती वाक् भी गौ प्राण से ही समन्वित है। (सरस्वती हि गौ:) यजु. ३८/२। गौमाता की भौतिक उपयोगिता के सम्बन्ध में तो किसी भी भूतविज्ञानवादी, किन्तु प्रज्ञाशील को तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता। ‘तत्र गव्यं तु जीवनीयं रसायनम्’ रूप से भारतीय आयुर्वेदशास्त्र ने भी गौपशु का महत्व स्वीकार किया गया है।
अध्यात्म में बुद्धि सौर इन्द्र प्राणमयी है, प्रज्ञानमन आन्तरिक्ष्य मरुत्त्वान् इन्द्र प्राणमय है एवं भूत शरीर वासवेन्द्र प्राणमय है। अतएव मानव संस्था के सभी प्रतिष्ठात्मक प्राण गौरूप हैं। तभी तो ऐन्द्रियक विषयों को ‘गोचर’ कहा गया है। इन्द्र सम्बन्ध से ही इन्हें ‘इन्द्रिय’ कहा गया है। ‘इन्द्रियं वै वीर्य गाव:’ (शत. ५/४/३/१०) श्रुति गौतत्त्व की आध्यात्मिकता का भी समर्थन कर रही है। अधिदैवता रूप ईश्वरीय संस्था में, अध्यात्म रूपा प्राणी संस्था में, तथा अधिभूत रूपा स्थावर संस्था में, सर्वत्र गौतत्त्व प्राधान्य, इन्द्रप्राधान्य प्रमाणित हो रहा है। ऐसे सर्वप्रतिष्ठिता गौप्राण की प्रधानता से ही अमुक पार्थिव दिव्य पशु ‘गौपशु’ कहलाया।
क्रमश: भाग 2 में…