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पोस्टर लेकर काटते थे थिएटर्स के चक्कर मोर छइयां भुंईया बनाने वाले सतीश जैन बताते हैं, कहि देबे संदेस और घरद्वार नहीं चल पाई थी। इसलिए एग्जीबिटर्स को इस फिल्म के प्रति कोई उत्साह नहीं था। मैं पिताजी के साथ पोस्टर लेकर टॉकीजों के चक्कर काटा करता था। काफी मिन्नत करने के बाद रायपुर के बाबूलाल टॉकीज वाले 40 हजार रुपए साप्ताहिक रेंट में फिल्म लगाने राजी हुए। जबकि उस वक्त किराया 20 से 25 हजार साप्ताहिक हुआ करता था। बिलासपुर में 11 टॉकीज थी। कोई तैयार नहीं हुआ। हमने एक बंद पड़ी टॉकीज मनोहर को खुलवाकर लगाई। लेकिन जब फिल्म चल पड़ी तो हर कोई चाहने लगा कि उसके यहां लगाई जाए। यह भी पढ़ें