मासूम को ट्यूमर था, उसे मेडिकल भाषा में गैन्ग्लियो न्यूरो फाइब्रोमा ऑफ लेफ्ट हीमोथोरेक्स कहा जाता है। सामान्य भाषा में इसे पोस्टीरियर मेडिस्टाइनल ट्यूमर कहते हैं। रायगढ़ के टुंडरी गांव की रहने वाली मासूम जब दो साल की हुई तो वह चल भी नहीं पा रही थी। तब उसके पिता ने बुरला मेडिकल कॉलेज में दिखाया परंतु वहां बीमारी का पता नहीं चला। इसके बाद वे रायपुर एम्स में दिखाए, जहां पर बीमारी का पता चला।
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इसमें बच्ची की रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर था। एम्स के न्यूरो सर्जन ने मासूम के स्पाइनल कॉड से ट्यूमर निकाल दिया, जिससे बच्ची कुछ चलने लगी। इसके बाद ट्यूमर फिर बायीं छाती में फैल गया और यह ट्यूमर इतना बड़ा था, जिससे बच्ची ठीक से सांस नहीं ले पा रही थी। एम्स के डॉक्टरों ने ट्यूमर के फैलाव को देखते हुए यह केस हार्ट, चेस्ट और वैस्कुलर सर्जन डॉ. कृष्णकांत साहू के पास रेफर कर दिया। सर्जरी के बाद मासूम को चार दिनों तक वेंटीलेटर पर रखना पड़ा। 10 दिनों तक बच्ची की हालत नाजुक थी। फिर होश में आई और उन्हें नया जीवन मिल गया।
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ट्यूमर को निकालना असंभव लग रहा था डॉ. साहू बताते हैं कि यह ट्यूमर इतना बड़ा था कि शरीर के मुख्य अंग जैसे महाधमनी, सबक्लेवियन आर्टरी हार्ट की झिल्ली एवं लंग हाइलम को चपेट में ले लिया था। इसके कारण इसको निकालना असंभव सा प्रतीत हो रहा था। डॉ. साहू बताते हैं कि वे फेफड़े एवं छाती के कैंसर के 250 से भी ज्यादा केस ऑपरेट कर चुके हैं एवं पोस्टेरियर मेडिस्टाइनल ट्यूमर के 25 से भी ज्यादा ऑपरेशन कर चुके हैं परंतु अभी तक 3 साल की बच्ची में इतना बड़ा पोस्टेरियर मेडिस्टाइनल ट्यूमर का केस पहली बार देखा।
पहले तो ऑपरेशन के लिए मना कर दिया कि यह केस ऑपरेशन के लायक नहीं है क्योंकि इसमें बच्चे के जान जाने की 90 से 95 प्रतिशत संभावना है और ऑपरेशन नहीं भी करवाते तो कैंसर बीमारी के कारण 100 प्रतिशत जान जाने की संभावना है। फिर भी 5 प्रतिशत सफलता की आशा के साथ बच्ची के माता-पिता ऑपरेशन के लिए राजी हो गए।