कृषि वैज्ञानिक डॉ. संकेत ठाकुर ने कहा, कॉर्पोरेट फार्मिंग (Corporate farming) दो तरह की है। एक में कॉर्पोरेट किसानों से जमीने पटटे पर लेकर खुद खेती करने उतरता है। रिलायंस ने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में ऐसा प्रयोग किया था, लेकिन सफल नहीं हो पाई। दूसरा तरीका जो अपने यहां तेजी से फैल रहा है वह कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग का है। कई छोटी-बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह कर रही हैं। डॉ. ठाकुर ने बताया, इसमें कंपनी किसानों से किसी फसल के लिए करार करती है। वह किसानों को बीज, खाद और तकनीकी (Technics Of farming) सलाह मुहैया कराती है। फसल की मार्केटिंग भी कंपनी ही करती है। इस तरीके से किसानों की आय बढ़ी है।
हालांकि एक तबके में इसको लेकर अपनी तरह की चिंताएं हैं, लेकिन किसानों से पूछे तो वे खुश हैं। प्रगतिशील किसान संगठन के राजकुमार गुप्त ने कहा, सरकार खेती में मशीनों को बढ़ाना चाहती है। छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh news) में अधिकतर छोटी जोत के किसान हैं। मेड़बंदी की वजह से मशीनी खेती यहां संभव नहीं है। ऐसे में सरकार चाहती है कि किसान अपने खेतों को लीज पर दें, जहां कॉर्पोरेट कंपनियां खेती करें। राजकुमार गुप्त का कहना है, वे कॉर्पोरेट फार्मिंग के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन बड़ी जोत बनाने के लिए किसानों की ही सहकारी समिति बने। खेत का मालिक किसान ही रहे तो उसका स्वागत है।
वरिष्ठ किसान नेता आनंद मिश्रा कॉर्पोरेट फार्मिंग को खतरे की तरह देख रहे हैं। उन्होंने कहा, यह व्यवस्था गांव और शहर दोनों को खत्म कर देगी। खेतिहर जमीन पर कॉर्पोरेट के मुताबिक खेती होगी। सब कुछ मशीनकृत तो गांव का आदमी खाली होकर शहर की ओर जाएगा। गांव लोगों से खाली होने की वजह से खत्म होगा और शहर सघन होती जनसंख्या की वजह से। उन्होंने कहा, खेती का यह तरीका अमरीका जैसे देशों के लिए ठीक है जहां, जनसंख्या कम है लेकिन जमीन अधिक। अपने देश-प्रदेश की परिस्थितियों में इसके अच्छे परिणाम नहीं आएंगे।
खाद्य सुरक्षा की भी चिंता
किसान (farmers) नेता राजकुमार गुप्त का कहना है कि खेतों का आकार बड़ा होने और मशीनीकरण से उत्पादन बढ़ेगा। गुप्त का अनुमान है कि खाद्यान्न का जितना उत्पादन अभी हो रहा है, उतना उत्पादन एक चौथाई जमीन से मिल जाएगा। वहीं आनंद मिश्रा इस व्यवस्था को खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा बता रहे हैं। उन्होंने विश्व खाद्य संगठन के हवाले से कहा, यह व्यवस्था दुनिया की भूख नहीं मिटा पाएगी। मिश्रा कहते हैं, यह पूंजीवादी व्यवस्था है। खेतों में उस फसल का उत्पादन कराएगी जिसकी बाजार में मांग है, उसकी नहीं जिसकी वास्तव में आवश्यकता है।
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