आदिवासियों को मिला फायदा
छत्तीसगढ़ राज्य में बस्तर का नक्सली इलाका आज आदिवासियों की सफलता की गाथा लिख रहा है. यहां की डिलमिली, उरूगपाल एवं मुंडागढ़ की पहाड़ियां की जलवायु में कॉफी की कई दुर्लभ किस्में (Coffee in Bastar) उगाई जा रही हैं. इन्हें अब बस्तरिया कॉफी के नाम से जाना जाता है. बस्तर की इस नक्सली बेल्ट पर स्थित इलाके में कॉफी के साथ अंतरवर्तीय खेती और करीब 5 नकदी फसलें उगा जा रही हैं. इससे छत्तीसगढ़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती और आदिवासियों को रोजगार मिल रहा है. इस तरह कभी धान का कटोरा नाम से मशहूर छत्तीसगढ़ राज्य अब बस्तरिया कॉफी (Bastariya Coffee) के फेमस होने के रास्ते पर चल रहा है.
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ऐसे तैयार होती है बस्तर की कॉफी
छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसानों की आजीविका बढ़ाने में बस्तरिया कॉफी मील का पत्थर साबित होगी. बता दें कि यहां कॉफी की खेती के साथ-साथ उसकी प्रोसेसिंग भी की जाती है. इसके लिए सबसे पहले बागान से कॉफी की हार्वेटिंग करके बीजों को सुखाया जाता है. इसके बाद प्रोसेसिंग यूनिट में बीज को अलग करके बाद में भूल लिया जाता है. जब कॉफी पीने योग्य हो जाती है तो फिल्टर कॉफी के लिए पाउडर तैयार करते हैं. अब बस्तर की कॉफी सिर्फ एक फसल नहीं रही, बल्कि एक ब्रांड बनने की दौड़ में शामिल होने जा रही है. यहां कॉफी से तमाम उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं. कॉफी की खेती, प्रोसेसिंग और इससे जुड़े कामों में उद्यान विभाग और कृषि विभाग के अधिकारी भी किसानों की मदद करते हैं.
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60 साल तक मिलेगा प्रॉडक्शन
आज बस्तर में कॉफी की खेती के अलावा आम, कटहल, सीताफल, काली मिर्च जैसी नकली फसलें भी उगाई जा रही है. यहां की जलवायु के मुताबिक कॉफी की खेती के लिए अरेबिका–सेमरेमन, चंद्रगरी, द्वार्फ, एस-8, एस-9 कॉफी रोबूस्टा- सी एक्स आर किस्मों को उगाया जा रहा है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, जल निकासी वाली मिट्टी और छायादार इलाकों में कॉफी के पौधे खूब पनपते हैं. एक बार पौधों की रोपाई करने के बाद 4 साल के अंदर फल उत्पादन मिलने लगता है. 18 से 35 पीएच मान तापमान में अगले 35 साल तक कॉफी के पौधों से फलों का प्रॉडक्शन ले सकते हैं. इन कॉफी के बागानों की सही देखभाल और अंतरवर्तीय खेती करके किसान अतिरिक्त आय भी ले सकते हैं.