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एक देश एक चुनाव, जो चुनेंगे ज़रा उनकी भी सुनें

एक देश एक चुनाव के पक्ष – विपक्ष में काफी डिबेट हो सकती है और होना भी चाहिये। भारत में पहले इकट्ठे लोकसभा – विधानसभाओं के चुनाव होते थे लेकिन राज्यों की सरकारें गिरने की वजहों से सिस्टम गड़बड़ा गया। भारत में एक साथ मतदान का इतिहास 1951-52 में हुए पहले आम चुनावों से मिलता है।

जयपुरDec 20, 2024 / 11:52 am

Hemant Pandey

‘एक देश – एक चुनाव’ यूं तो देखने सुनने में अच्छा लगता है। एक ही बार में सब काम पूरा। एक ही वोटर लिस्ट, एक ही आचार संहिता, एक ही दिन वोटिंग और एक ही गिनती। सब झंझट एक बार में खत्म। बात सही भी है। भारत जैसे गैर-अमीर देश में बार बार के चुनाव से बेशुमार खर्चा तो होता ही है। सच्चाई है कि हमारा देश चुनाव कराने में दुनिया में टॉप पर है।



देश भर में एक साथ सभी चुनाव कराने की बात है। ‘एक देश – एक चुनाव’ के नारे के साथ एक विधेयक लोक सभा में पेश भी हो चुका है, जिसे अब संसदीय समिति के पास विचार करने को भेज दिया गया है। वैसे तो 1999 में विधि आयोग, 2015 में संसदीय समिति, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित समिति की 18,626 पेज की रिपोर्ट इस आइडिया को सपोर्ट करती हैं।एक चुनाव का रास्ता अभी तो शुरू भर हुआ है, अभी सफ़र काफी लंबा है। इसके बीच तमाम बातें और अड़चनें भी आना स्वाभाविक है क्योंकि इस मसले पर राजनीतिक दलों में सिद्धांततः सहमति नहीं है। गैर भाजपा या गैर एनडीए विपक्ष को यह अवधारणा ही पसंद नहीं, जबकि भाजपा को इसमें खूबियाँ ही खूबियाँ नजर आ रहीं हैं।

‘एक देश – एक चुनाव’ यूं तो देखने सुनने में अच्छा लगता है। एक ही बार में सब काम पूरा। एक ही वोटर लिस्ट, एक ही आचार संहिता, एक ही दिन वोटिंग और एक ही गिनती। सब झंझट एक बार में खत्म। बात सही भी है। भारत जैसे गैर-अमीर देश में बार बार के चुनाव से बेशुमार खर्चा तो होता ही है। सच्चाई है कि हमारा देश चुनाव कराने में दुनिया में टॉप पर है। चुनावों में हमसे ज्यादा पैसा अमेरिका जैसा अमीर मुल्क भी खर्च नहीं करता। चुनाव आयोग और सरकार जो खर्च करती है उससे अलग राजनीतिक दल और नेता भी बेहिसाब खर्च करते हैं। एक साथ चुनाव कराने से और कुछ नहीं तो समय और पैसा तो बचेगा ही। जान लीजिये कि 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2009 के लोकसभा चुनावों में सरकारी खजाने पर लगभग 1,115 करोड़ रुपये और 2014 के चुनावों में लगभग 3,870 करोड़ रुपये का खर्च आया था। हालाँकि, पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च सहित, चुनावों पर खर्च किया गया वास्तविक धन कई कई गुना ज्यादा होगा। एक साथ चुनाव कराने के लिए 35 लाख ईवीएम और वीवीपीएटी चाहिए। अभी जितनी हैं, उसमें पंद्रह लाख जोड़ने होंगे। एक ईवीएम व एक वीवीपीएटी के लिए सत्रह सत्रह हज़ार रुपये चाहिए। समझा जाता है कि चुनाव आयोग ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की लागत 4,500 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया है। इसके अलावा वोटर लिस्ट का दोहराव, सरकारी मशीनरी की बार बार की चुनावी व्यस्तता और बार बार की आचार संहिता भी काबिले-गौर फैक्टर हैं।

सब अच्छाईयों के बीच एक बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि एक देश-एक चुनाव की भारी भरकम व्यापकता को चुनाव आयोग संभाल भी पायेगा? अभी तक के रिकॉर्ड से ऐसा कतई नहीं लगता। यूपी जैसे राज्य में सात-सात चरण में चुनाव कराये जाते हैं। ज़रा हमारा आयोग एक ही चरण में चुनाव कराने की परीक्षा पास कर के दिखाए। अभी बीते महीनों में सात राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए। एक बार चार और एक बार तीन के। क्यों नहीं आयोग ने एक ही बार में सातों राज्यों के चुनाव करा कर एक प्रैक्टिस कर डाली? कुछ नहीं तो वोटर लिस्ट तो एक बन सकती है, वही काम अब तक 78 बरसों में क्यों नहीं किया गया?
यही नहीं, अभी तो चुनाव के लिए पुलिस, केंद्रीय बल, टीचर, सरकारी कर्मचारी एक जगह से दूसरी जगह जा-जा कर चुनाव कराते हैं। वजह है कि आदमियों और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी है।लेकिन जब पूरे देश में एक साथ सब कुछ होगा तो कर्मचारियों की फ़ौज और इंफ्रास्ट्रक्चर कहाँ से आयेगा? क्या उसकी कोई योजना है? और जो खर्चा इन मानव संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर पर आयेगा क्या वह बार बार के चुनाव के खर्च से कम होगा?

एक देश एक चुनाव के पक्ष – विपक्ष में काफी डिबेट हो सकती है और होना भी चाहिये। भारत में पहले इकट्ठे लोकसभा – विधानसभाओं के चुनाव होते थे लेकिन राज्यों की सरकारें गिरने की वजहों से सिस्टम गड़बड़ा गया। भारत में एक साथ मतदान का इतिहास 1951-52 में हुए पहले आम चुनावों से मिलता है। उस समय, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव हुए थे। यह प्रथा 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों में जारी रही। हालाँकि, एक साथ चुनावों का चक्र 1968 और 1969 में डिस्टर्ब हो गया, जब कुछ राज्य विधानसभाएँ समय से पहले भंग कर दी गईं थीं। 1970 में लोकसभा को भी समय से पहले ही भंग कर दिया गया था और 1971 में नए चुनाव हुए थे। तब से एक साथ चुनावों की प्रथा को पुनर्जीवित नहीं किया गया। एक साथ चुनाव कराने की सिर्फ प्रथा ही थी, इसका कोई कानूनी प्रावधान नहीं था, न इस प्रथा को तोड़ने के लिए कोई कानून बना। तो आगे क्या गारंटी है कि सभी राज्यों की सरकारें और लोकसभा हर बार अपना टर्म पूरा करेगी? अगर किसी भी वजह से किसी राज्य की सरकार गिर गयी तो क्या होगा? फिर तो घूम फिर कर हम वहीँ पहुँच जायेंगे।
चलिए, एक देश एक चुनाव पर राजनीतिक गहमागहमी तो चालू है और आगे भी बनी रहेगी ।
लेकिन चुनाव की असली धुरी यानी जनता और मतदाता की क्या राय है, इसकी फ़िक्र सिरे से नदारद है। जिनको वोट चाहिये उनकी चिंताएं और उम्मीदें तो स्वाभाविक हैं । लेकिन जिनके दम पर सब कुछ होना है जरा उनसे भी तो कोई पूछे? वैसे कोई पूछने नहीं जा रहा क्योंकि हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रायशुमारी की कोई जगह नहीं है और जो सांसद-विधायक ने कह दिया वही जनता का बोल मान लिया जाता है। लोग क्या चाहते हैं ज़रा उनसे भी कोई पूछ ले। ज़रा जनता को भी इस योजना का हर पहलू, सभी अच्छाईयां और बुराइयाँ समझाया जाए फिर उनकी भी राय ले ली जाए। सरकार न सही, कम से कम राजनीतिक पार्टियाँ ही राय जान लें। लेकिन इसमें ईमानदारी बरतें, चन्द हजार लोगों की राय शुमारी से बात नहीं बनेगी, इसमें व्यापक राय और सुझाव होने चाहिए। इसकी भी बाते करें हमारे नेता और दल। सिर्फ कमेटी की बात को सबकी बात नहीं माना जा सकता। अफ़सोस है कि जनता से पूछने की फ़िक्र कोई नहीं करता। काश एक दिन ऐसा भी आये कि कोई बड़ा निर्णय लेने से पहले ‘एक देश – एक राय’ की भी अवधारणा को आगे बढ़ाया जाए। हम इंतज़ार करेंगे उस दिन का।

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