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पुरुषों को भी चाहिए कानूनी संरक्षण, बदलते समाज की आवश्यकता

जिस दिन किसी व्यक्ति को अन्याय से लड़ने के बजाय अपना जीवन त्याग देना सरल लगने लगे उस दिन उस व्यक्ति से पहले न्याय-व्यवस्था की सांसें उखड़ जाती हैं।

जयपुरDec 23, 2024 / 05:26 pm

Hemant Pandey

प्रायः यह बात सुनने में आती है कि समाज पुरुष-प्रधान है, परंतु इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि समाज पुरुष-प्रधान रहा है या फिर समाज ने पुरुष को प्रधान बना दिया है?

-वंदिता नैन, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली
बेंगलुरु में हुई अतुल सुभाष की दुखद मृत्यु ने वह सत्य उजागर किया जो आधुनिक समय में अनगिनत भारतीय पुरुषों के जीवन का यथार्थ तो है परंतु मीडिया की रोशनी से दूर होने के कारण समाज में चर्चा का विषय ना हो सका । उस नौजवान की मृत्यु ने हमें उस चर्चा के पटल पर ला खड़ा किया जो एक अहम बदलाव की उम्मीद को जन्म देती है।

भारतीय समाज की कुछ कुरीतियों ने एक समय अनगिनत महिलाओं के जीवन की बलि ली, फिर चाहे वह सती प्रथा हो, दहेज प्रथा हो या घरेलू हिंसा। ना जाने कितने परिवार बर्बाद हो गए। हम आज भी अपने परिवार में अपनी माँ-दादी-नानी से इस तरह की कुप्रथाओं की ढेरों कहानियों सुन सकते हैं। कुछ समय पहले तक हमारे समाज में महिलाओं की मूल परवरिश उन्हें बेहद सहनशील, समर्पित और त्यागपूर्ण व्यक्तित्व की ओर ले जाती थी। उनके मानस पटल पर विवाह, पति, बच्चे और परिवार की छाप इतनी गहरी होती थी कि इसके बिना जीवन की वो कल्पना भी नहीं कर सकती थी। शिक्षित महिलाएँ भी समाज के इस ढाँचे में पूर्ण रूप से रची बसी थी और यही वजह थी कि जिन घरों में उनके प्रेम और त्याग का तिरस्कार हुआ, उनका मानसिक और शारीरिक शोषण हुआ, उनके व्यक्तित्व का दमन हुआ, वहाँ वे भी आवाज़ उठाने से परहेज़ करती रही।
नतीजतन पुरुषों में इस तरह के शोषण का व्यवहार प्रबल हुआ और हमने अपनी अनेकों माँ-बहनें इन्हीं कुप्रथाओं की भेंट चढ़ती देखी।
यह वो दौर था जहां समाज की कुरीतियां से निपटने कि लिए और महिलाओं का जीवन सुरक्षित करने के लिए क़ानूनी संरक्षण महत्वपूर्ण हो गया था और उसी के चलते अनेकों विधान बनाये गए जो मूल रूप से समान ना होकर महिलाओं की तरफ़ झुकाव रखते थे, जैसे कि दहेज प्रतिरोधक अधिनियम, 498 A भा० दं० सं०, घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम इत्यादि। शारीरिक प्रताड़ना के अतिरिक्त मानसिक प्रताड़ना को भी वैधानिक रूप से स्वीकार किया गया। एक ज़िम्मेदार समाज और एक ज़िम्मेदार सरकार के तौर पर ये कदम सराहनीय थे और इनका संरक्षण पाकर बहुत सी महिलाओं का जीवन और घर टूटने से बचे।
दुविधा शुरू हुई जहां समाज और माता-पिता ने अपनी बेटियों को सशक्त करने के लिए तो शिक्षा और समान परवरिश की तरफ रूख किया परंतु सरकार और क़ानून ने समय अनुसार ज़रूरी बदलावों को नज़रंदाज़ किया। नतीजा: हमारी बेटियाँ शिक्षित और सशक्त हुई, हमारे बेटे सम्वेदनशील हुए परंतु क़ानून की दृष्टि में महिला अब भी अबला रही और पुरुष आज भी अत्याचारी।
प्रायः यह बात सुनने में आती है कि समाज पुरुष-प्रधान है, परंतु इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि समाज पुरुष-प्रधान रहा है या फिर समाज ने पुरुष को प्रधान बना दिया है? अतीत में झाँक कर देखें तो हमारे समाज के प्रणेता अपनी माता के नाम से उतना ही जाने जाते थे जितना कि अपने पिता के, उदाहरण के लिए, श्री राम को कौशल्या-नंदन, लक्ष्मण को सुमित्रा-नंदन, श्री हनुमान को अंजनी-पुत्र, श्री कृष्ण को देवकी-नंदन एवं अर्जुन को पार्थ इत्यादि। भजन करते समय हम आज भी सीता-राम एवं राधे-श्याम कहते हैं। फिर कैसे पुरुष ही प्रधान बन गया और कैसे वह इतना बलशाली बन गया कि अब उसे क़ानून से संरक्षण की आवश्यकता नहीं है?
जब बात विधि और विधायिका की आती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे की पुरुष का समाज में कोई अस्तित्व ही नहीं है। भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 354 ने महिलाओं से छेड़छाड़ को, धारा 375 ने यौन उत्पीड़न को, धारा 498 A ने ससुराल में होने वाले अत्याचार को आपराध बनाया, जिसकी परम आवश्यकता थी, परंतु समाज के आधे हिस्से की उपेक्षा की पराकाष्ठा तब होती है जब भारतीय दंड संहिता, 1860 को भारतीय न्याय संहिता, 2024 से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है और न्याय संहिता में भी उसे न्याय नहीं मिलता है अपितु अधिक अन्याय का भागी होता है, जब संसद यह मान लेती है कि एक पुरुष का दूसरा पुरुष भी यौन शोषण नहीं कर सकता (नई संहिता में भा०दं० सं० की धारा 377 को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया है।)। 2013 में जब महिलाओं के कार्यालयों में होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने का अधिनियम बनाया गया तब भी यह मान लिया गया कि पुरुष का कार्यालय में यौन उत्पीड़न नहीं हो सकता। अर्थात् पुरुष की अस्मिता को ना तो महिला से खतरा है न ही किसी अन्य पुरुष से। हमारा विधान यह मानता है की एक महिला एक पुरुष की हत्या तो कर सकती है परंतु उसका शोषण नहीं। आश्चर्यजनक बात यह है कि जिन अंग्रेज़ों ने हमारे ऊपर भा०दं० सं० को थोपा, उनके अपने समानात्मक अधिनियम में यौन शोषण किसी भी व्यक्ति का हो सकता है और इसके लिए लैंगिक परिचय मायने नहीं रखता है और दुराचारी के लिए समान दंड है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ।
दुःखद यह है कि यह विचित्र असमानता तब है जब की हमारा संविधान सभी नागरिकों को समान वैधानिक संरक्षण का मौलिक अधिकार देता है। संविधान के अनुसार जहाँ महिलाओं के संरक्षण के लिए अलग से अधिनियम बनाने का अधिकार है और उसे लैंगिक-समानता का उल्लंघन नहीं माना जाएगा वहीं संविधान यह कहीं नहीं कहता कि समाज के आधे से बड़े वर्ग को एक क्षेत्र में बिना किसी वैधानिक संरक्षण के छोड़ दिया जाए। जहाँ विधान महिलाओं पर होने वाले घरेलू शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का संज्ञान लेता है वहीं पुरुषों को राम भरोसे छोड़ दिया गया है। स्वांता-सुखाय यह मान लिया गया है कि पुरुषों के साथ घर में कभी कोई हिंसा हो ही नहीं सकती और मानसिक रूप से पुरुष को दुःखी करना असंभव है क्योंकि उसका हृदय तो भावनाओं का मरुस्थल है।
किसी भी ग़लत को सही करने की आवश्यकता होती है ना कि एक और ग़लत को बढ़ावा देने की और यही गलती हमसे एक समाज के तौर पर और न्यायालय से क़ानूनी तौर पर हुई है और निरंतर हो रही है। हमने अपनी बेटियों को सुरक्षित रहने और सामाजिक कुप्रथाओं से लड़ने के लिए तैयार तो किया परंतु उनकी सहनशीलता और त्याग की मूल स्त्रैण गुणों को विकसित ही नहीं होने दिया। हमने अपने बेटों को महिलाओं के प्रति सम्वेदनशील करने की और तो कदम बढ़ाया परंतु उनकी अपनी भावनात्मक ज़रूरतों को नज़रंदाज़ कर दिया। परिणामस्वरूप, हमारी सशक्त बेटियाँ भटक कर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लगीं और हमारे सम्वेदनशील बेटे अपनी पीड़ा को छुपाए अब भी अत्याचारी होने का बोझ ढो रहे हैं।
पिछले समय के दुर्ग्यपूर्ण वाक्यों जैसे शिखर धवन और मोहम्मद शम्मी ( प्रमुख भारतीय क्रिकेटर) के साथ हुए क़ानूनी प्रकरण जिसमे इनकी पत्नियों ने भरण पोषण के कानूनी प्रावधानों के साथ साथ इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और पितृत्व का उपहास एवं दुरुपयोग किया। विडंबना यह है कि हम अपने बेटों को महिलाओं के प्रति संवदेनशील तो बनाना चाहते हैं परंतु उनकी अपनी भावनाएं, उनकी पीड़ा और उनका मानसिक स्वास्थ्य पूर्ण रूप से नज़रअंदाज़ करते हैं। हम पुरुषों से संवदेना की उम्मीद रखते हैं परंतु उसके प्रति संवेदना को हम स्वीकार तक नहीं करते। हम महिलाओं के प्रति सामाजिक और कानूनी रूप से एक तरफा सहानुभूति रखते हैं परंतु पुरुषों को होने वाली पीड़ा, मानसिक-शारीरिक असहजता और भावनात्मक कष्ट को अनदेखा करते हैं।
ऐसा नहीं है कि क़ानून के इस बढ़ते दुरुपयोग से महिलायें केवल पुरुषों का नुकसान कर रही हैं बल्कि ज़्यादा नुकसान आज भी उन महिलाओं का हो रहा है जो आज भी अपने घरों में सामाजिक कुरीतियों और कुंठित मानसिकता का दंश झेल रही हैं। बचपन में शेर आने की झूठी अफवाह ने इतना निश्चिंत कर दिया कि जब सच में शेर आया तो किसी ने भरोसा ही नहीं किया। झूठे महिला उत्पीड़न के केस भी उसी शेर की झूठी अफवाह जैसे हैं जो असली पीड़ित महिलाओं के दर्द को नज़रंदाज़ कर उन्हें क़ानूनी संरक्षण तक पहुँचने ही नहीं देते।
जब भी पुरुषों को यौन उत्पीड़न एवं घरेलू हिंसा के वैधानिक संरक्षण से बाहर रखने पर प्रतिरोध व्यक्त किया जाता है तो प्रायः यह तर्क रखा जाता है कि यदि पुरुषों को भी समान वैधानिक अधिकार दे दिए गए तो उनका दुरुपयोग बहुत होगा। इस प्रकार का तर्क, कुतर्क मात्र हो सकता है क्योंकि यह ना केवल विधायिका की क्षमता एवं दूरदर्शिता पर प्रश्न उठाता है अपितु सम्पूर्ण संविधान एवं न्याय व्यवस्था पर एक भीमकाय प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। क्या महिलाओं को दिए गए अधिकारों का दुरुपयोग नहीं हो रहा है? क्या इस भय से कि अधिनियम का दुरुपयोग हो सकता है, अधिनियम ही नहीं बनाये जाएँगे? क्या किसी के दुरुपयोग करने के डर से पीड़ित को न्याय देने की व्यवस्था ही ना की जाए? क्या हमारी न्याय व्यवस्था एवं न्यायाधीश इतने भी सक्षम नहीं कि तथ्य एवं सत्यता तक पहुँच सकें? यदि एक भी व्यक्ति, स्त्री या पुरुष, न्याय से वंचित रह जाता है तो सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था एवं न्याय प्रक्रिया पर प्रश्न उठ जाता है तो फिर जहाँ आधा समाज ही न्याय से वंचित कर दिया जाता है वहाँ क्या होगा? न्याय बिना किसी भेद-भाव के होना चाहिये, न्याय सबके लिए समान होना चाहिए।
जिस दिन किसी व्यक्ति को अन्याय से लड़ने के बजाय अपना जीवन त्याग देना सरल लगने लगे उस दिन उस व्यक्ति से पहले न्याय-व्यवस्था की सांसें उखड़ जाती हैं। हमारे पुरुषों के लिए ये कहना और समझाना अत्यंत मुश्किल है कि वे भी भावनात्मक और मानसिक रूप से टूट रहे हैं, उन्हें भी बच्चे और पत्नी के बगैर घर काटने को दौड़ता है, उन्हें भी दफ़्तर से लौटने कि बाद एक साथी चाहिए मन साझा करने के लिए और उन्हें भी दिल और विश्वास टूटने पर उतना ही कष्ट होता है जितना की महिला को। और इसके बाद भी एक पुरुष से ना केवल समाज बल्कि न्यायालय भी ये उम्मीद करते हैं कि वह केवल भरण पोषण भत्ते पर ध्यान दे और अपने बचाव में मुकदमा लड़े बिना किसी सहानुभूति की आशा किये।
पिछले एक दशक में नयायालयों ने इस बात का संज्ञान लिया है कि महिला संरक्षण अधिनियमों का दुरुपयोग हो रहा है और उन्हें रोकने के लिए कुछ निर्देश भी दिए हैं परंतु वह पर्याप्त नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अर्नेश कुमार के केस में दिए गए निर्देश के उपरांत धारा 498A के अंतर्गत होने वाली फर्जी गिरफ्तारी में भारी कमी आयी है जिसके परिणाम स्वरूप पति के परिवार पर लटकती कारागार की तलवार कुछ दूर तो हुई है। सर्वोच्च न्यायालय ने 10 दिसंबर 2024 को न्यायाधीश बी० वी० नागरत्ना एवं न्यायाधीश एन० कोटेश्वर सिंह की खंडपीठ के द्वारा यह बात मानी कि पिछले कुछ समय में धारा 498 A के प्रावधानों के दुरूपयोग में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है। न्यायालय ने माना कि इसका दुरुपयोग पति एवं उसके परिवारजनों एवं परिजनों के विरद्ध व्यक्तिगत कलह एवं द्वेष के कारण बदले की भावना से अधिक किया जाता है। उन्होंने कहा कि यदि ऐसे निराधार आरोपों और विवादों को ठीक से समझ कर शीघ्र नहीं रोका गया तो यह ना केवल वैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग होगा अपितु पत्नी द्वारा पति को विवश करने के हथियार के रूप में भी प्रयोग होगा। सर्वोच्च न्यायालय की इस टिपण्णी को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। अतः न्यायव्यवस्था के सभी स्तरों पर यह अनिवार्य हो जाता है कि पति-पत्नी के मध्य विवादों को सुलझाते समय जनपद-न्यायालय भी उतने ही जागरूक हों और प्रयास करें की ऐसे विवाद शीघ्र और न्यायपूर्ण पथ से संपूर्णता की ओर अग्रसर हों ना कि भावनात्मक एवं विस्थापित सहानुभूति का निवाला बन कर एक पक्ष को सम्पूर्ण न्यायिक निराशा का उपहार दें।
परिवार के भीतर की परेशानियों का समाधान मात्र क़ानून से तब तक नहीं हो सकता जब तक उस क़ानून में संवेदनशीलता, सामाजिक परिवेश और तेज़ी से बदलते समय का आकलन ना हो। हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए की कानून समाज के लिए है और जो क़ानून समाज के साथ कदम से क़दम मिलाकर नहीं चल सकता वह मृतप्राय हो जाता है। महिलाओं द्वारा अपने हक़ के क़ानूनों का दुरुपयोग उनके अनुभवों और उनकी सोच का सीधा-सीधा परिणाम है। अगर एक महिला क़ानून का उपयोग अपने हक़ के लिए नहीं बल्कि किसी पुरुष से बदला लेने और अपनी ज़िद की पूर्ति के लिए करती है तो एक समाज के तौर पर हमारी और उसके परिवार की हार है और ऐसे दुस्साहस को बिना सही खोज बीन किए यंत्रिक ढंग से जारी रहने देना हमारे क़ानूनी व्यवस्था की हार है।
मेरे निजी अनुभव में मुझे इस समस्या की असली गहरायी उस दिन पता चली जिस दिन मैंने पारिवारिक न्यायालय में दो चेहरों को ध्यान से देखा। पहला चेहरा एक 22 साल की युवती का था जिसका तलाक़ हो रहा था। उस युवती को मुआवज़े के तौर पर ससुराल पक्ष की और से एक चेक दिया गया था। मुझे दुःख और हैरानी दोनों ही अनुभवों से एक साथ गुजरने का अवसर प्राप्त हुआ जब उस युवती के चेहरे पर मैंने सम्बन्ध विच्छेद के दुःख की एक भी लकीर ना पाकर, मुआवज़े की रकम मिल जाने की अद्भुत ख़ुशी देखी। वो युवती उस रकम के चेक को देखकर इतनी प्रफुल्लित थी की उसके बाद न्यायाधीश महोदय ने क्या पूछा क्या कहा उसे कुछ भी भान नहीं। उसी दिन दुःख और बेबसी की संयुक्त भावना से भी गुजरना हुआ जब मैंने एक 24-25 साल के युवा पुरुष को तलाक़ मिलने के बाद कहते सुना “पहले ठीक ही करते थे जो इन्हें मार-पीट कर रखते थे, वरना ये ज़िद और लालच में आदमी का जीवन बर्बाद कर देती हैं।’
ये दोनो ही घटनाएँ एक अधिवक्ता और एक महिला होने के नाते मुझे झकझोर गयीं क्यूँकि महिला कानूनों के दुरुपयोग के इस दौर ने ना केवल असली पीड़ित महिलाओं के लिए अविश्वास पैदा कर दिया है बल्कि संवेदनशील और अच्छे पुरुषों की दृष्टि में महिलाओं की छवि धूमिल कर दी है और इस स्थिति के लिए समाज और क़ानून बराबर ज़िम्मेदार है।
हम सामाजिक और क़ानूनी दोनों तौर पर यह भूल गये कि दुःख और अन्याय का कोई लिंग नहीं होता। दहेज और शोषण पर बली चढ़ी एक बेटी हो या झूठे मुक़दमे में फँसा एक बेटा, दोनो ही उस महिला की हार है जो एक माँ है और परिवार और समाज के लिए दोनो घातक हैं। न्यायालयों द्वारा यंत्र चलित तरीके से भरण पोषण के अंतर्गत पुरुष को आदेश देने से पहले महिला की शिक्षा, उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि और पुरुष को होने वाली व्यावहारिक और वास्तविक पीड़ा को भी मद्देनजर रखना चाहिए। आज भी अनेकों निर्णयों कि बावजूद न्यायालयों द्वारा ये कहना “ भीख माँगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिए परंतु अपनी पत्नी को भरण पोषण भत्ता दीजिए ” समाज और महिला सशक्तिकरण को मारा हुआ वो तमाचा है जो मेहनत करके आगे बढ़ने वाली महिलाओं को अपमानित करता है और पति की वैवाहिक ज़िम्मेदारी को महिला कि लिए पैसे कामने का एक ज़रिया मात्र बना छोड़ता है। इस तरह की अनुचित सहानुभूति समाज में महिला और पुरुषों के बीच की खाई को और गहरा करते हुए आने वाली पीढ़ी को अविश्वास की और धकेल रही है जिसके दूरगामी परिणाम सोचकर डर लगता है।
समाज में सही और संतुलित न्यायिक व्यवस्था ना दे पाने का परिणाम बहुत ही घातक है। चाहे वह महिलाओं का शोषण हो या फिर पुरुष का, दोनों ही स्थिति में लोगों का विवाह जैसी पवित्र व्यवस्था से भरोसा उठ जाता है। परिणामस्वरूप, या तो एक बड़ा वर्ग विवाह से दूर हो जाता है, या फिर विवाह से पहले ही तलाक की तैयारी की जाती है जिसके अंतर्गत विवाह-पूर्व-अनुबंध बनाये जाते हैं। विवाह-पूर्व-अनुबंध विदेशों में प्रचलित हैं परंतु भारत में इनकी कोई मान्यता नहीं है फिर भी कई लोग इसके बारे में प्रश्न करने लगे हैं। इस प्रकार की विचारधारा का जन्म लेना मात्र हमारे समाज के लिए ख़तरे की घंटी है और इनकी उपेक्षा आने वाले समय में हमारे समाज और हमारी संस्कृति के लिए बहुत भारी पड़ेगी।
यह असंतुलित व्यवस्था शनै: – शनै: परिवार में और संबंधों में अविश्वास की जड़ों को सशक्त कर रही है जिसके फलस्वरूप देश की सबसे छोटी इकाई जिसे परिवार कहते हैं, टूट रही है। परिवार देश की जड़ हैं क्योंकी एक देश की सम्पूर्ण सांस्कृतिक एवं आर्थिक सभ्यता का निर्माण एवं संवहन परिवार से ही होता है और इस प्रकार यह देश की जड़ पर प्रहार है। इसलिए यह अब परम-आवश्यक है कि हम शीघ्र ही इस गंभीर समस्या पर लिंग-भेद से परे होकर विचार करें और एक निष्पक्ष एवं संतुलित क़ानूनी व्यवस्था का विस्तार करें जिससे की कोई और युवा, पुरुष या महिला, अतुल सुभाष के रास्ते पर ना जाए। इस से पहले की ये असमानता हमरी युवा पीढ़ी की और बलि ले, इसे बदलते सामाजिक परिवेश के हिसाब से ढालना अत्यंत महत्वपूर्ण है। अंत मैं सभी महिलाओं से बस इतना कहना चाहती हूँ की हम एक बहुत लंबे, कष्टदायक और शोषित समय से उबरकर बाहर आने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं और इस लिए कम से कम हमें ये बात बहुत अच्छे से समझनी चाहिए की शोषण और पीड़ा का कोई लिंग नहीं होता और ये पुरुषों कि लिए भी उतनी ही कष्दायक है जितनी हमारे लिए। एक स्त्री होने कि नाते हमें इस बात का बीड़ा उठाना चाहिए की जो अन्याय हमारे साथ हुआ और आज भी बहुत जगह हो रहा है, हम वो अन्याय ना ही अपने साथ और ना ही किसी पुरुष के साथ होने देंगे। जिस दिन हर महिला बस इतना समझ लेगी, उस दिन बिना किसी क़ानूनी बदलाव के भी, कोई अतुल सुभाष अपना जीवन देने के लिए मजबूर नहीं होगा।

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