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राजकपूर के जीवन दर्शन को व्याख्यायित करता जोकर

विनोद अनुपम, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

जयपुरDec 16, 2024 / 02:00 pm

Hemant Pandey

आश्चर्य नहीं कि अपने जन्मदिन 14 दिसंबर से 4 दिन बाद की तारिख उन्होंने मेरा नाम जोकर के रिलीज के लिए चुनी,18 दिसंबर। इस फिल्म का आधार 1965 में राजकपूर वैजयंतीमाला के साथ बन रही फिल्म ‘बहुरुपिया’ में देखा जा सकता है।


‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर की बायोपिक नहीं थी,लेकिन बायोपिक से कहीं बढ कर थी। इसके हरेक दृश्य में, हरेक संवाद में, हरेक गीत में कहीं न कहीं राजकपूर उपस्थित दिखते थे। ‘जाने कहां गए वो दिन’ जैसे गीत हों या ‘आदमी में दिल होता है,दिल में आदमी’ जैसे संवादों में लगता राजकपूर स्वयं ध्वनित हो रहे। आश्चर्य नहीं कि अपने जन्मदिन 14 दिसंबर से 4 दिन बाद की तारिख उन्होंने मेरा नाम जोकर के रिलीज के लिए चुनी,18 दिसंबर। इस फिल्म का आधार 1965 में राजकपूर वैजयंतीमाला के साथ बन रही फिल्म ‘बहुरुपिया’ में देखा जा सकता है। इस फिल्म के कुछ गाने रिकार्ड भी हुए,और शूट भी हुए,लेकिन फिल्म पूरी नहीं हो सकी।राजकपूर ने जोकर की उस संक्षिप्त सी कहानी को लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ मिल कर मानवीय स्वभाव और भावनाओं की महागाथा के रुप में रच दिया। ज्यों ज्यों इसकी कहानी आकार लेते जा रही थी, राजकपूर इस फिल्म से एकाकार हुए जा रहे थे, फिल्म बडी और बडी होती जा रही थी, यहां तक कि फाइनेंसरों ने हाथ खींच लिए,लेकिन राजकपूर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं थे। इस फिल्म को पूरा करने में राजकपूर ने अपनी सारी संपत्ति गिरवी रख दी।आश्चर्य नहीं कि आज ‘मेरा नाम जोकर’ में किसी भी स्तर पर कोई भी कमी ढूंढ पाना आसान नहीं।

इसके पहले 1964 में आयी राजकपूर की ही ‘संगम’ दो इंटरवल के साथ आने वाली पहली हिंदी फिल्म थी,’मेरा नाम जोकर’ उससे भी लंबी थी, 4 घंटे 43 मिनट की। बाद में यह फिल्म 3 घंटे के भी संस्करण में आयी। लेकिन मूल फिल्म जिस तरह किसी महागाथा के रुप जीवन के हरेक पल को व्याख्यायित करती है,वह विलक्ष्ण आस्वाद संक्षिप्त संस्करण में संभव ही नहीं। कहानी कहने को किसी राजू की है,जिसके जीवन की महात्वाकांक्षा सबको खुश रखने की है, हंसाने की है, जोकर बनने की है।लेकिन एक ईमानदार व्यक्ति की यह छोटी सी इच्छा कितनी बडी लगने लगती है,कथा तो यही है,लेकिन राजू के जीवन में आए छोटे छोटे पलों के इमोशन इसे महागाथा का रुप देती है,जहां जीवन पर ठहर कर संवेदना से विचार करने की एक समझ मिलती है।यह एक ऐसी गाथा है,जिसे देखते हुए आप हंसते हैं,लेकिन आपका मन रोता है।

तीन भाग में बनी इस फिल्म के दूसरे भाग के केंद्र में जेमिनी सर्कस है,जिसमें रूसी कलाकार काम करने आए हुए है।यह राजकपूर की समय की समझ थी। राजकपूर की फिल्मों के लेखक रहे ख्वाजा अहमद अब्बास घोषित रुप से कम्यूनिस्ट थे,जाहिर है कहीं न कहीं राजकपूर की फिल्मों में समाजवादी विचार की झलक मिलती रही, दिल हिन्दुस्तानी होते हुए भी,सर पर रूसी लाल टोपी रखने में उन्होंने संकोच नहीं किया। आश्चर्य नहीं कि सोवियत संघ में उनकी लोकप्रियता नेहरू के बराबर मानी जाती थी। कहते हैं,जब वे पहली बार रुस गए थे तो लोगों ने उनकी कार को कंधे पर उठा लिया था। ‘मेरा नाम जोकर’ में रुसी सर्कस की उपस्थिति इस पूर्वपीठिका में भी देखी जा सकती है।जहां बार बार रूसी और हिंदुस्तानी की दोस्ती को रेखांकित करने की कोशिश की जाती रही।

वास्तव में ‘मेरा नाम जोकर’ को दुनिया भर के कलाकारों को राजकपूर के एक ट्रिब्यूट के रुप में देखा जाना चाहिए,जिसमें राजकपूर खुद भी शामिल रहे हैं।राजू कहता है ‘दिल बडा होना,बडी खतरनाक बात है’,लेकिन राज कपूर दिखाते हैं,दिल बडा होना जरुरी बात है।

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