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China-Nepal-क्या चीन के सपनों में खो रहा नेपाल का भविष्य?

क्या ओली की आंखों पर चीनी रंग का इतना गहरा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के उदाहरण नहीं दिख रहे?

जयपुरDec 12, 2024 / 03:52 pm

Hemant Pandey

चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यूनिफाइड माक्र्सवादी-लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) का झुकाव चीन की तरफ रहा है, इसलिए ओली का यह निर्णय अनापेक्षित नहीं है। परन्तु राष्ट्रपति शी जिनपिंग के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (बीआरआइ) के ‘नए फ्रेमवर्क’ को स्वीकारना भारत के लिए अखरने वाली बात होनी चाहिए।


चीन-नेपाल की दोस्ती: बीआरआइ के ‘नए फ्रेमवर्क’ को स्वीकारना भारत के लिए अखरने वाली बात होनी चाहिए

नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने चौथी बार पद ग्रहण के बाद अपनी पहली कूटनीतिक यात्रा के लिए नई दिल्ली की बजाय बीजिंग को चुनकर एक संदेश देने की कोशिश की है। यद्यपि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्ष 2008 में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचंड ने अपनी पहली कूटनीतिक यात्रा के लिए बीजिंग को ही प्राथमिकता दी थी। चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल यूनिफाइड माक्र्सवादी-लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) का झुकाव चीन की तरफ रहा है, इसलिए ओली का यह निर्णय अनापेक्षित नहीं है। परन्तु राष्ट्रपति शी जिनपिंग के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (बीआरआइ) के ‘नए फ्रेमवर्क’ को स्वीकारना भारत के लिए अखरने वाली बात होनी चाहिए।

सवाल यह उठता है कि ‘बीआरआइ’ के जरिए ओली नेपाल के हितों को साधने का प्रयास कर रहे हैं या चीन से बड़े-बड़े वादे कर देश पर भारी कर्ज लादने का बंदोबस्त कर रहे हैं? क्या ओली की आंखों पर चीनी रंग का इतना गहरा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के उदाहरण नहीं दिख रहे? नेपाल की तरफ से आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि चीन बीआरआइ फ्रेमवर्क एग्रीमेंट में शामिल होने का उद्देश्य है ट्रांस-हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क तैयार करना है ताकि नेपाल को बिजनेस और कनेक्टिविटी के एक रीजनल सेंटर के रूप में विकसित किया जा सके। तात्पर्य यह कि चीन, नेपाल को एक बहुत बड़ा सपना दिखा रहा है कि वह बीआरआइ के जरिए नेपाल की एशिया के दूसरे देशों के साथ कनेक्टिविटी को बढ़ाएगा जिससे उसका आर्थिक रूपांतरण (ट्रांसफार्मेशन) हो सके।
प्रधानमंत्री ओली भी चीन की भाषा ही बोल रहे हैं। वे भी बीआरआइ को नेपाल के लिए गेम चेंजर बता रहे हैं। लेकिन क्या सच्चाई भी यही है? अगर बीआरआइ की माइक्रो और मैक्रो, दोनों ही स्तर पर आकलन किया जाए तो आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि यह नेपाल के विकास को कौन सी दिशा देगा और उसकी विदेश नीति को किधर ले जाएगा। ऐतिहासिक रूप से भारत से कनेक्ट नेपाल के विषय में जवाहर लाल नेहरू ने संसद में भाषण देते कहा था- ‘… यहां तक कि एक बच्चा भी जानता है कि भारत से होकर गुजरे बिना कोई नेपाल नहीं पहुंच सकता। इसलिए किसी अन्य देश के साथ नेपाल के उतने घनिष्ठ संबंध नहीं हो सकते जितने हमारे साथ। हम चाहते हैं कि प्रत्येक राष्ट्र भारत व नेपाल के बीच स्थापित घनिष्ठ भौगोलिक और सांस्कृतिक संबंधों को स्वीकारे।’ परन्तु अब यह सत्य नेपथ्य में जाता हुआ दिख रहा है क्योंकि नेपाल अब उन प्रवेश द्वारों का निर्माण करने की कोशिश में है जिससे कि भारत से गुजरे बिना ही कोई भी नेपाल पहुंच सके।

नेपाल भले ही इसे भारत पर निर्भरता को कम करने जैसा तर्क दे परंतु चीन इसके जरिए वहां भारतीय हितों को काउंटर करने में ही सफल नहीं हो रहा है बल्कि भारत-नेपाल सीमाओं तक पहुंच सुनिश्चित कर ले जा रहा है। हालांकि नेपाल की यह खिसकन उसी समय शुरू हो गई थी जब नेपाली सत्ता पर माओवाद ने कब्जा करने में सफलता पा ली थी। हालांकि अभी तक वह पूरी तरह से चीनी ‘ऋ ण जाल’ (डेट ट्रैप) में नहीं फंसा था। परंतु अब चीन बीआरआइ प्रोजेक्ट के जरिए नेपाल के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में ‘एड एंड इन्वेस्टमेंट’ की बात कर रहा है उससे यह स्पष्ट होता है कि चीनी ‘डेट ट्रैप डिप्लोमेसी’ (ऋण-जाल कूटनीति) का अगला शिकार वही होगा। दुनिया जानती है कि जो भी देश उसका कर्ज चुकाने में नाकाम होता है, उसकी रणनीतिक संपत्ति (स्ट्रेटेजिक प्रॉपर्टी) चीन अपने कब्जे में ले लेता है। श्रीलंका के हंबनटोटा, पाकिस्तान ग्वादर और मालदीव सहित ऐसे कई उदाहरण हैं जो चीनी डेट ट्रैप की कहानी बयां कर रहे हैं। अब देखना यह है कि नेपाल भी इन एशियाई देशों की राह चलेगा या बचकर निकलेगा? हालांकि बचने की संभावनाएं न के बराबर हैं।

चीन द्वारा विकासशील और अल्पविकसित देशों में किए जा रहे निवेश और दिए जा रहे ऋण ‘डेट ट्रैप डिप्लोमेसी’ का हिस्सा हैं। इसके तहत वह दो तरह से देता है। एक-छुपा हुआ ऋण (हिडेन डेट) और दूसरा-सीधे तौर पर दिए जाने वाला ऋ ण (डायरेक्ट डेट)। ध्यान रहे कि चीनी कर्ज का एक बड़ा हिस्सा छुपे हुए ऋण (हिडेन क्रेडिट्स) के रूप में होता है जिसे वह अलग-अलग चीनी इकाइयों से देता है। कर्ज वापस न देने पर चीन वहां अपना हक जताता है। ध्यान रहे कि नेपाल की चीन से बीआरआइ प्रोजेक्ट को लेकर 2017 से बातचीत चल रही थी। नेपाल इस प्रोजेक्ट के लिए कर्ज की जगह अनुदान (ग्रांट) की मांग कर रहा था। लेकिन चीनी पक्ष ने ‘नए फ्रेमवर्क’ में ‘ग्रांट’ को जगह नहीं दी बल्कि उसके स्थान पर ‘एड एंड टेक्निकल असिस्टेंस’ शब्द स्थापित कर दिया और प्रधानमंत्री ओली ने इसे ही स्वीकार कर लिया। सामान्यतया यह फ्रेमवर्क तीन वर्ष तक मान्य रहेगा लेकिन यदि कोई पक्ष इसे रद्द नहीं करता है तो यह आगे भी जारी रहेगा। वैसे नेपाल के वश में भी यह नहीं है कि वह इसे रद्द कर सके।
इसका मतलब यह हुआ कि अब नेपाल में चीनी रेनमिनबी (चीनी मुद्रा) और मंडारिन (चीनी भाषा) नेपाल को नई दिशा देने का काम करेंगी। एक नेपाली थिंक टैंक का मानना है कि नए फ्रेमवर्क पर हस्ताक्षर होना चिंता का विषय नहीं है लेकिन अब चीनी अध्यापक नेपाल में मंडारिन सिखाने आएंगे। यानी चिंता का असल विषय यह है कि मंडारिन नेपाल में वही कार्य करेगी जो औपनिवेशिक काल में भारत में अंग्रेजी ने किया था। वैसे यह सिलसिला चीन पहले ही शुरू कर चुका है, लेकिन अब यह रणनीतिक स्तर पर क्रियान्वित हो सकता है।
नेपाली थिंक टैंक-‘सेंटर फॉर सोशल इन्क्लूजन एंड फेडरलिज्म’ का कहना है कि बीआरआइ महज ‘इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट’ नहीं है, यह पश्चिम के दबदबे वाले ‘वल्र्ड ऑर्डर’ को चुनौती देने वाला प्रोजेक्ट भी है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। चीन बीजिंग और शंघाई में ऐसी वित्तीय संस्थाओं की स्थापना कर रहा है जो ‘सॉफ्ट पावर गेम’ में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। जैसे-जैसे वह इसमें आगे बढ़ेगा, उसकी अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय बाजारों को आच्छादित करेगी और उसकी सेना हिन्द-प्रशांत के रणनीतिक हितों को। फिलहाल देखना यह है कि चीन रेनमिनबी-मंडारिन द्वारा भारत-नेपाल के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कनेक्ट (अयोध्या-जनकपुर, लुम्बिनी-कुशीनगर) को किस सीमा तक प्रभावित करता है।

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