कुछ बरस पहले तक हमारे देश के लगभग सभी प्रदेशों में स्थानीय पारंपरिक व्यंजनों को अपनी सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग माना जाता था और इसे एक अनमोल विरासत समझा जाता था। प्रादेशिक खानपान देश काल के अनुसार निर्धारित होता था जो आबो हवा के अनुकूल किसी क्षेत्र विशेष के निवासियों के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता था। यह तथ्य सिर्फ़ सामान्य ज्ञान द्वारा पुष्ट नहीं वरन आधुनिक वैज्ञानिक शोध से भी प्रमाणित हो चुका है। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कह सकते हैं कि पिछले दस पंद्रह साल में हमने पश्चिमी सांस्कृतिक साम्राज्य वादी दबाव में भूमण्डलीकरण की चिप्पी चिपका कर फ़ास्ट फ़िंगर फ़ूड के नाम पर अपना खाना चबाना भुला कर कचरा ( जंक फूड) खाना खिलाना शुरू कर दिया है। इसका सबसे बुरा असर किशोरों किशोरियों पर पड़ा है। ज़माने के साथ अपने समवयस्कों की चाल ढाल अपनाने का दबाव उन्हें इडली, समोसा, टिक्की, बड़े से भटका कर बर्गर, पित्जा, कोला पेय और क्रित्रिम रसायनों से भरपूर मिल्क शेक, आइसक्रीम का दीवाना बना रहा है। यह सब विज्ञापनों के तिलिस्म का असर है।
हालाँकि हाल में विदेश में वीगन, और्गैनिक की लहर का ज्वार उफन रहा है तथा क़ुदरती स्वाद, गंध, रंग की खाने में वापसी होने लगी है। मोटे अनाज (श्रीअन्न) की क़ीमत साधन संपन्न तबका महसूस करने लगा है पर जाने क्यों स्वदेशी मध्य वर्ग इन्हें अभी भी ग़रीबों का आहार ही समझता है। सबसे विकट विडंबना तो यह है कि जो पारंपरिक व्यंजन देश भर में लोकप्रिय हैं उनको भी विदेशी जामा पहनाया जा रहा है। इसकी एक मिसाल मोमो है जिसे मेयोनीज और हौलैंडीज सॉस के साथ परोसा जाने लगा है और कई जगह इसके भीतर मैगी या चॉकलेट भरी जाती है। खाद्य पदार्थों और व्यंजनों के विकास के नाम पर मोमो का तंदूरी अवतार तो प्रकट हो चुका है परन्तु समोसे का तला नहीं सिका (बेक) संस्करण दुर्लभ है।
अभिभावकों को यह गंभीरता से विचारने की ज़रूरत है कि इस संकट से कैसे निबटा जाए? खाते पीते घरों के बच्चे अमरीकी हम उमर बच्चों की तरह मोटाने लगे हैं और 30 बरस के युवा रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग से ग्रसित हो रहे हैं। बाद में पछताने से कुछ हासिल नहीं होगा। कई बेचारों को तो जिम में कसरत करते वक्त ही दिल का दौरा पड़ जाता है, रुकी धमनियों को खोलने के लिए आपरेशन करवाना पड़ता है। भारत दुनिया की डायबिटीज राजधानी बनने की कगार पर है।
चुनौती कठिन है पर अभी मर्ज़ लाइलाज नहीं। हमें शुरुआत अपने घर से करनी होगी। पारंपरिक स्थानीय व्यंजनों को नया रूप देना होगा। बेसन या दाल के चीलों को पित्जा या पैन केक की जगह परोसना कठिन नहीं। समोसे के अंदर सेवियों के नूडल्स अंकुरों के साथ भर कर तो देखिए! रैप फ़ूड के शौक़ीनों को काठी कबाब का विकल्प बखूबी लुभा सकता है। पनीर के साथ मौसमी हरी सब्ज़ियों से नन्हें बन वाले बर्गर नाश्ते के अलावा टिफ़िन में ले जाए सकते हैं। सबसे बड़ी ज़रूरत मेनू में विविधता की है। किशोर आबादी को फ्यूजन बहुत सोहता है। जाने हम क्यों यह ग़लतफ़हमी पाले हैं कि स्वाद या पाकविधियों का संगम भारतीय और विदेशी व्यंजनों का ही हो सकता है। हिंदुस्तानी उपमहाद्वीप के खानपान में इतनी विविधता है कि कहीं और भागने की दरकार नहीं। चाट हो या भाप से पके हल्के ढोकले, केले कटहल के चिप्स हों या दही बड़े , भेल पूरी या नाचो, तक को पछाड़ने में सक्षम नन्हीं मठरियाँ – तली नहीं सिकी- मीठे मक्के के दाने, ताल मखाने चौकलेटी रंगत वाले खजूर के गुड़ की चाशनी में लिपटे, तिल के या रामदाने के लड्डू, चिक्की मूँगफली की, चटपटे बिना तले चिवड़ों की नवरत्न नमकीन- सूची बहुत लंबी है।
एक और बात ध्यान में रखना ज़रूरी है। बच्चों को बड़ों की तुलना में तेल, घी, मक्खन, चीनी से डरावने परहेज की ज़रूरत नहीं। हाँ, रिफाइन्ड अति प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के खतरे से उन्हें सतर्क किया जाना चाहिये। यह काम चेतावनी से नहीं रोचक क़िस्सों, व्यंजनों के साथ जुड़ी कहानियों के ज़रिए कहीं बेहतर किया जा सकता है। आप ख़ुद भी खाना बनाने में हाथ बटाएँ और बच्चों की रुचि भी इसमें बढ़ाएँ। खाना बनाना सिर्फ़ महिलाओं की ज़िम्मेदारी नहीं।
यदि पारंपरिक स्थानीय व्यंजनों से जुड़े रोचक तथ्यों और मुहावरों, किंवदंतियों, मिथकों के बारे में हम अपनी जानकारियों को निरंतर बढ़ाते हुए इनका साझा बच्चों और साथियों से करेंगे तब निश्चय ही नई पीढ़ी के सदस्य इनसे आत्मीय रिश्ता जोड़ने का प्रयास खुद करेंगे और इसमें कामयाब होंगे। यह लेक्चर की तरह नहीं पहेली/क्विज या रोल माडलों से जोड़ कर किया जाना चाहिए। कौन मशहूर खिलाड़ी या फिल्मी सितारा शाकाहारी है? समोसा आया कहाँ से, टिक्का पहुँचा कहाँ रे? जैसे मजेदार सवालों के अलावा मसालों से जुड़ी औपनिवेशिक साहसिक खोज यात्राओं में कुतूहल न केवल खाने का स्वाद बढ़ाने की गारंटी देता है बल्कि इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र एवं समाज शास्त्र जैसे विषयों को सहज, सरल बना देता है।
विभिन्न मंदिरों के नैवेद्य- प्रसाद और तीर्थ स्थलों के विशेष व्यंजन सूफी दरगाहों, गुरुद्वारों के लंगर हमारे देश की एकता को पुष्ट करने वाली विविधता के सूत्रों को उजागर करने के साथ मौसम के बदलते ऋतुचक्र के अनुसार पर्वों उत्सवों के अवसर पर तैयार किए जाने वाले व्यंजनों की तर्कसंगत व्याख्या करते हैं। खीर के अनेक रूप, खिचड़ी की लंबी बिरादरी, रोटियों के माथा चकरा देने वाले प्रकार सब के सब इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि 21वीं सदी में जन्मे नागरिक उनको ठीक से पहचानें, अपनी पहचान के साथ जोड़ें और सेहत के लिए उनके असंदिग्ध फायदों का लाभ उठाएँ।
यह बात बारंबार दोहराना ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति के लिए हर व्यंजन रुचिकर हो ज़रूरी नहीं। न ही अपने समुदाय या भाषा परिवार की बिरादरी तक सिमटे रहने की मजबूरी है। भारतीय संस्कार हमेशा से समावेशी तथा समन्वयात्मक रहा है। अनेक पारंपरिक स्थानीय व्यंजन देश के अन्य सुदूर अंचलों की उपज का प्रयोग करते आ रहे हैं काश्मीर के केसर से ले कर केरल की काली मिर्च और इलायची इसका उदाहरण हैं। पान का पत्ता हज़ारों साल पहले दक्षिण पूर्व एशिया से यहाँ पहुँचा तो समुद्र के तटवर्ती इलाक़े में पैदा होने वाला नारियल देशभर में शुभांकर श्रीफल के रूप में प्रतिष्ठित है। अगर हम पूरे दक्षिण एशिया के खानपान के बारे में खुले दिमाग से सोचें तब यह बात तत्काल साफ़ हो जाएगी कि हमारी भारतीय पहचान स्थानीय संकुचित नहीं अखिल भारतीय, उपमहाद्वीपीय है। हमारे पारंपरिक व्यंजन सिर्फ़ सेहत के लिए फायदेमंद नहीं वरन जड़ों को तलाशते यहाँ-वहाँ फैली मजबूत शाखाओं में विचरण का अवसर भी प्रदान करते हैं।
जहाँ तक कचरा खाने का संकट है निश्चय ही उसके बारे में सतर्क रहने की ज़रूरत है। पर इस बारे में निराश हताश होने की आवश्यकता नहीं। हम भविष्य के बारे में आशान्वित हैं क्योंकि नई पीढ़ी ख़ुद ट्विटर, इन्स्टाग्राम जैसे नए सामाजिक माध्यमों का इस्तेमाल कर अपनी सही राह चुनने में सक्षम नज़र आ रही है। हमें सिर्फ़ अपने रसोईघर के दरवाज़े खिड़कियां खुले रखने की ज़रूरत है। क़ुदरती खाद्य पदार्थों का रंग, सुगंध, स्वाद एक बार ज़बान पर चढ़ जाए तो जीवन पर्यंत उतरता नहीं। स्वास्थ्य की चिंता को रोग न बनाएं बल्कि पारंपरिक भोजन के चुंबकीय आकर्षण को अपना जादू जगाने दें। यदि बच्चों को यह सब खुद तलाशने का मौक़ा मिलेगा तब वह इसे स्वेच्छापूर्वक सहर्ष अपनाएँगे!