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नई दिल्ली

UP Assembly Elections 2022 : क्यों ओबीसी वोटर्स पर केंद्रित है बीजेपी का ‘मिशन 2022’

जैसे देश की सत्ता पर काबिज होने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, वैसे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने का रास्ता ओबीसी वोट बैंक पर निर्भर है। ओबीसी मतदाताओं के महत्व को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी ने ओबीसी जातियों को लुभाने के लिए अपने विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को टारगेट थमा दिया है।

नई दिल्लीNov 16, 2021 / 06:07 pm

Mahima Pandey

Uttar Pradesh Assembly Election OBC Vote
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों मे जातिगत समीकरण का अहम है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में जीत के लिए सभी राजनीतिक दल जातियों को लुभाने में कोई कमी नहीं रखते। सभी दल ओबीसी, वैश्य, दलित और ब्राह्मणों को अपनी ओर करने के लिए नए-नए अभियान और रणनीति बना रहे हैं। हालांकि, इन सभी में ओबीसी जाति का महत्व सबसे अधिक है। कहते हैं कि जैसे देश की सत्ता पर काबिज होने का रास्ता उत्तर प्रदेश (लोकसभा की 80 सीटें) से होकर जाता है, वैसे ही उत्तर प्रदेश की सत्ता (विधानसभा की 403 सीटें) पर काबिज होने का रास्ता ओबीसी वोट बैंक पर निर्भर है। ओबीसी मतदाताओं के महत्व को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी ने ओबीसी जातियों को लुभाने के लिए अपने विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को टारगेट थमा दिया है। भाजपा ने राज्य के ओबीसी मंत्री, सांसद और विधायकों को 10-10 गावों की जिम्मेदारी दी है। जिन गावों की जिम्मेदारी दी गई है वहाँ ओबीसी समुदाय की आबादी अधिक है।
क्या है रणनीति?

दरअसल, भाजपा ने अब अपने नेताओं को मंगलवार से 30 नवंबर तक ‘सामाजिक संपर्क’ नाम से संपर्क अभियान शुरू कर ओबीसी समुदाय को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित करने की रणनीति बनाई है। भाजपा के ओबीसी मोर्चा के प्रभारी दयाशंकर सिंह ने इस मामले पर जानकारी देते हुए कहा, “सभी नेता इन गांवों का दौरा करेंगे, केंद्र और यूपी सरकार द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर अपनी जाति के मतदाताओं को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित करेंगे।” बीजेपी उन गांवों में अपना वोट आधार मजबूत करना चाहती है जहां वोटिंग काफी हद तक जाति के आधार पर होती है. हालांकि, पार्टी के नेता इस कार्यक्रम के दौरान जाति के बजाय सरकार द्वारा किए जा रहे कार्यों के आधार पर मतदाताओं को वोट देने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। जनता को समझाने के लिए नेता अपना उदाहरण भी देंगे कि कैसे भाजपा ने उनके जाति समूहों में नेतृत्व को बढ़ावा दिया है। कभी ओबीसी मोर्चा तो कभी कैबिनेट में ओबीसी नेताओं को जगह देना तो कभी ओबीसी के लिए आरक्षण बिल को पास करना भी भाजपा की रणनीति का ही हिस्सा थे। इस बार भाजपा ओबीसी मतदाताओं को एकजुट करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। जहां एक तरफ बसपा और सपा ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ भाजपा का फोकस इस बार ओबीसी समुदाय पर है।
भाजपा का फोकस ओबीसी पर क्यों?

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का फोकस गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोटों पर रहा था और भाजपा इनका भरोसा जीतने में सफल भी रही थी, परंतु इस बार ओबीसी पर है जो सत्ता की सीढ़ी और आसान कर देगी। समाजवादी पार्टी के कोर वोट बैंक यादव और मुस्लिम और बसपा के दलित और मुस्लिम रहे हैं। ओबीसी मतदाताओं की पहली पसंद समाजवादी पार्टी रही है और इन्हीं ओबीसी मतदाताओं के कारण ही वर्ष 1977 में रामनरेश यादव ने यूपी में जनता पार्टी की सरकार बनाई थी, फिर मुलायम सिंह यादव तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मुलायम सिंह यादव के बाद वर्ष 2012 में अखिलेश यादव को भी ओबीसी वोट बैंक का समर्थन मिला और वो यूपी की सत्ता पर काबिज हुए। इस बार भाजपा की रणनीति इसीलिए ओबीसी को अपने पाले में करना है।
सपा के लिए यादवों का समर्थन पुराना

अभी तक यही देखा गया है कि 90% से ज्यादा यादव समाज समाजवादी पार्टी को वोट करता, जबकि 31 फीसदी ओबीसी मतदाताओं के कारण ही 2017 मे भाजपा सत्ता में आ सकी थी। इसका कारण है कि भाजपा ने बसपा के गैर-जाटव दलित वोट बैंक और सपा के गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी करने में सफलता प्राप्त की थी।
ओबीसी का पूरा समर्थन चाहती है भाजपा

दरअसल, भाजपा ने गैर-यादव वोट बैंक की ताकत को पहचान कर ही उसपर अपनी मजबूती दर्ज की थी। यही कारण था कि भाजपा 2014 के लोकसभा, 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में नतीजों को अपने पक्ष मे करने में सफल रही थी। इस बार भाजपा का उद्देश्य पूरे ओबीसी मतदाताओं को अपनी तरफ करने का है। प्रदेश की 39 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने से लेकर प्रदेश कैबिनेट में 60 मंत्रियों में अब 23 ओबीसी मंत्रियों को शामिल करना, फिर ओबीसी मोर्चा बनाना और अब हर गावों में ओबीसी समुदाय के लोगों तक पहुंच बनाने के लिए नई रणनीति बनाई है।
अब ओबीसी मतदाताओं के महत्व को समझते हैं:

देश की कुल आबादी मे ओबीसी का प्रतिनिधित्व 50 फीसदी से अधिक है तो वहीं, उत्तर प्रदेश में इनका प्रतिनिधित्व करीब 50 फीसदी है, जिसमें मुस्लिम ओबीसी भी शामिल है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की आबादी में अगड़ी जाति 23%, ओबीसी 40-45 ( यादव 10%, गैर यादव 35 %), दलित 20% और मुस्लिम 19% है।
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ओबीसी आबादी में किसकी कितनी भागीदारी?

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान में उत्तर प्रदेश में यादव 9 % और गैर-यादव ओबीसी जातियों में कुर्मी -पटेल 7%, कुशवाहा-मौर्य-शाक्य-सैनी 6%, लोध 4 %, गडरिया-पाल 3%, निषाद-मल्लाह-बिन्द-कश्यप-केवट 4%, तेली-शाहू-जायसवाल 22%, जाट 3%, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3% , कहार-नाई- चौरसिया 3%, राजभर 2% , गुर्जर 2 % हैं।
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ओबीसे में भी यादव सपा के कट्टर समर्थक माने जातें हैं, जबकि मुस्लिमों की पहली पसंद सपा रही है और फिर कांग्रेस। कभी कभी सवर्ण वोट बैंक का समर्थन भी प्राप्त कर सपा को कई बार प्रदेश की सत्ता मिली है।
यूपी के एटा, इटावा, फ़र्रुखाबाद, मैनपुरी, कन्नौज, आजमगढ़, फ़ैज़ाबाद, बलिया, संत कबीर नगर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माने जाते हैं और यहाँ सपा की उपस्थिति भी काफी मजबूत रही है। हालांकि, कन्नौज की सीट अखिलेश यादव की पत्नी पिछले लोकसभा चुनावों में नहीं बचा सकी थीं, जबकि आजमगढ़ अखिलेश यादव का गढ़ बना हुआ है।
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वर्ष 2012 में प्रदेश में सपा को 66% यादवों का समर्थन मिल था, जबकि 2007 में यही आंकड़ा 72 प्रतिशत का था। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में भी हार के बावजूद 68 प्रतिशत यादवों ने सपा का समर्थन किया था, जबकि गैर यादवों का समर्थन सपा के लिए हर वर्ष कम ही हुआ है। यही गैर यादव भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुए थे। हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा यादव वोट में सेंधमारी करने में सफल रही थी और ये आंकड़ा घटकर सपा के पक्ष में 53% ही रह गया। तब भाजपा केंद्र में बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। कांग्रेस की बात करें तो उसे 2009 में 11% यादवों का समर्थन मिला था, परंतु 2014 में ये केवल 8 फीसदी था।
आपको ये भी बता दें कि ये ओबीसी के समर्थन का ही प्रभाव है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता पर ब्राह्मणों के बाद सबसे ज्यादा ओबीसी जाति के नेता ही मुख्यमंत्री बने हैं। ओबीसी मुख्यमंत्रियों में चौधरी चरण सिंह (दो बार), राम नरेश यादव , कल्याण सिंह (दो बार), मुलायम सिंह (3 बार), अखिलेश यादव के नाम शामिल है।
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गैर-यादवों के साथ-साथ यादवों के वोट के महत्व को समझते हुए भाजपा 2017 के नतीजों के बाद से ही यादव वोट को अपने पाले में करने में जुटी है। यही कारण है कि जौनपुर से गिरीश यादव को योगी सरकार में मंत्री बनाया गया जबकि इटावा के हरनाथ यादव को राज्यसभा सदस्य बनाया गया। सुभाष यदुवंश को पार्टी मे महत्व देने के पीछे भी यादव वोट को साधना ही है। इसके अलावा यूपी की योगी सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल कर 13 फीसदी वोट बैंक को मजबूत किया था।
कुल मिलाकर कहें तो इस बार भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों में पूरे ओबीसी समुदाय को अपने पक्ष मे करना चाहती है, इसके लिए कुशीनगर और आजमगढ़ जैसे यादव बाहुल्य इलाकों में भाजपा के बड़े नेताओं का दौरा जारी है। इसके साथ ही सरकारी योजनाओं का लाभ भी जनता तक पहुंचा कर भाजपा अखिलेश यादव के कोर वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी करने की योजना पर काम कर रही है। यदि भाजपा इसमें सफल होती है तो विधानसभा चुनावों के नतीजों में पूरे ओबीसी समुदाय का समर्थन भाजपा को मिल सकता है, जिसका प्रभाव सपा के अस्तित्व को खतरे में डाल सकता है।

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