वर्ष 1936 में दोनों यूरोप में थे। सुभाष निर्वासित जीवन बिता रहे थे तो नेहरू की बीमार पत्नी कमला का जिनेवा में इलाज करा रहे थे। कमला का निधन हुआ तो सुभाष तुरंत मदद के लिए पहुंचे। अंतिम संस्कार की व्यवस्था की। उदास नेहरू को ढांढस बंधाया। दोनों में एक अपनापा बढ़ा। वैसे उस वक्त तक दोनों के राजनीतिक विचारों में भी काफी समानता थी। नेहरू और बोस शुरुआती दौर में अच्छे दोस्त थे। शुरुआत में बोस नेहरू को मित्र, शुभचिंतक और बड़ा भाई मानते थे। बाद में दूरियां इतनी बढ़ीं कि उन्हें लिखना पड़ा, जितना नेहरू ने उन्हें नुकसान पहुंचाया, उतना शायद ही किसी ने किया हो। उसके बाद से दोनों के बीच गहरे मतभेद बने रहे। ये मतभेद अंत तक बने रहे।
ज्यों-ज्यों दोनों के बीच मतभेद बढ़ता गया नेहरू उतने ही गांधी जी के करीब आ गए। जब हवाई दुर्घटना में बोस की मौत की खबर आई लेकिन कई लोगों ने कथित तौर पर आरोप लगाया कि वे हवाई दुर्घटना में नहीं मरे थे। वो गोपनीय ढंग से रूस पहुंच गए थे। आरोप लगाने वाले यह भी कहते हैं कि यह बात नेहरू जी को मालूम थी और इसकी पुष्टि 31 दिसंबर, 1961 को खोसला आयोग के समक्ष श्याम लाल जैन के बयान से भी हुई थी। आमतौर पर लोगों ने धारणा बना ली है कि नेहरू जी को मालूम था कि वह कहां हैं लेकिन उन्होंने घोषित तौर पर इस बारे में कभी कुछ नहीं कहा। यही कारण है कि सुभाष की मौत का राज अभी तक किसी को पता नहीं चल पाया।
दशकों से समय समय पर इस बात को लेकर चर्चाएं होती रही हैं कि विजयलक्ष्मी पंडित जब 1948 के आसपास सोवियत संघ से लौटीं तो उन्होंने शांताक्रूज हवाई अड्डे पर घोषणा की कि वह भारतवासियों के लिए एक अच्छी खबर लाई हैं। लेकिन नेहरू जी के दबाव में आकर उन्होंने जीवनभर अपनी जबान नहीं खोली। उसके बाद से कहा जाता है कि उनकी मुलाकात वहां सुभाष से हुई थी। अगर चर्चाओं को माने तो नेताजी की बाद में कई जगह मौजूदगी की बात की गई। वह तिब्बत में एकनाथलाता के रूप में 1960 में रहे। 1960 से 1970 तक शारदानंद के रूप में पश्चिम बंगाल में शौलमारी आश्रम में रहे। 1964 में नेहरू जी की मत्यु के बाद उनके शव के साथ देखे गए। वह गुमनामी बाबा के रूप में फैजाबाद में 1985 तक रहे। 13 मई 1962 को नेहरू जी ने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के बड़े बाई सुरेशचंद्र बोस को एक पत्र के जरिए जानकारी दी थी कि हमारे पास नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु का कोई प्रमाण नहीं है।