देवी मां के इस शक्तिपीठ के संबंध में मान्यता है कि यहां दर्शन मात्र से एक, दो या तीन नहीं बल्कि सात जन्मों के पापों से मुक्ति मिल जाती है। जी हां कई बार जब सद्कर्मों के बावजूद भी हम अनायास ही दु:ख-तकलीफ झेल रहे होते हैं और हमें लगता है कि इस जन्म में तो सब अच्छा किया है। यह शायद पिछले जन्म का कोई पाप है। ऐसे में कई जानकार और लोग देवी मां के इस शक्तिपीठ के दर्शन का सुझाव देते हैं।
मान्यता है कि मां की कृपा से वर्तमान ही नहीं संवरता बल्कि भूतकाल और पिछले जन्म के सारे पाप भी माफ हो जाते हैं। हम जिस मंदिर की बात कर रहे हैं, यह इसलिए भी विशेष है क्योंकि यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। तो आइए जानते हैं इस मंदिर के बारे में कि ये कहां स्थापित है? और इस मंदिर से जुड़े कुछ और रहस्य?…
51 शक्ति पीठ में से एक जिस मंदिर का हम जिक्र कर रहे हैं वह देवभूमि उत्तराखंड के टिहरी जनपद में स्थित है। यह सुरकुट पर्वत पर है। यह पर्वत श्रृंखला समुद्रतल से 9995 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। पर्वत पर स्थापित मंदिर का नाम सुरकंडा देवी है। मंदिर में देवी काली की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में पूरी होने वाली मुरादों को लेकर केदारखंड व स्कंद पुराण में एक कथा मिलती है। इसके अनुसार इसी स्थान पर प्रार्थना करके देवराज इंद्र ने अपना खोया हुआ राज्य वापस प्राप्त किया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री सती ने भोलेनाथ को अपने वर के रूप में चुना था। लेकिन उनका यह चयन राजा दक्ष को स्वीकार नहीं था। एक बार राजा दक्ष ने एक वैदिक यज्ञ का आयोजन किया। इसमें सभी को आमंत्रित किया लेकिर शिवजी को निमंत्रण नहीं भेजा। भोलेनाथ के लाख समझाने के बावजूद भी देवी सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में शामिल होने गईं। वहां भगवान शिव के लिए की गई सभी के द्वारा की जाने वाली अपमान जनक टिप्पणी से वह अत्यंत आहत हुईं। फलस्वरूप उन्होंने यज्ञ कुंड में अपने प्राण त्याग दिए।
भगवान शिव को जब देवी सती की मृत्यु का समाचार मिला तो वो अत्यंत दुखी और नाराज हो गए और सती माता के पार्थिव शरीर को कंधे पर रख हिमालय की और निकल गए। भगवान शिव के गुस्से को व दुःख को समाप्त करने के लिए और सृष्टी को भगवान शिव के तांडव से बचाने के लिए श्रीहरि ने अपने सुदर्शन चक्र को सती के नश्वर शरीर को धीरे धीरे काटने को भेजा। सती के शरीर के 51 भाग हुए और वह भाग जहां गिरे वहां पवित्र शक्ति पीठ की स्थापना हुई। जिस स्थान पर माता सती का सिर गिरा वह सिरकंडा कहलाया जो वर्तमान में सुरकंडा नाम से प्रसिद्ध है।
मंदिर में लड्डू, पेड़ा और माखन-मिश्री का प्रसाद तो आपने खूब ग्रहण किया होगा। लेकिन सुरकंडा देवी में अलग ही तरह का प्रसाद मिलता है। यहां प्रसाद के रूप में भक्तों को रौंसली की पत्तियां दी जाती हैं। यह औषधीय गुणों भी भरपूर होती हैं। मान्यताओं के अनुसार इन पत्तियों को जिस भी स्थान पर रखा जाए वहां सुख-समृद्धि का वास होता है। स्थानीय निवासी से देववृक्ष मानते हैं। यही वजह है कि इस वृक्ष की लकड़ियों का प्रयोग पूजा के अलावा किसी अन्य कार्य यानी कि इमारतों या अन्य व्यावसायिक स्थलों पर नहीं किया जाता।
सिद्वपीठ मां सुरकंडा मंदिर के कपाट पूरे वर्ष खुले रहते हैं। देवी के इस दरबार से बद्रीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ, चौखंबा, गौरीशंकर और नीलकंठ सहित अन्य कई पर्वत श्रृखलाएं दिखाई देती हैं। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि इस मंदिर में जो भी भक्त सच्चे मन से दर्शन करता है। उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। उनके अनुसार यूं तो देवी के दर्शन कभी भी किए जा सकते हैं। लेकिन गंगा दशहरा और नवरात्र दो ऐसे पर्व हैं जब मां के दर्शनों का विशेष महत्व माना गया है। मान्यता है देवी के दर्शन मात्र से ही श्रद्धालुओं के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। यही वजह है कि इस मंदिर के दर्शन करने देश के कोने-कोने से श्रद्धालुजन आते हैं।