आदिवासी आज भी विकास की बयार से दूर
शेखावत का कहना है कि आदिवासियों से संवाद बनाना अब भी आसान नहीं है। आज भी ये लोग विकास की बयार से दूर है। कई क्षेत्रों में तो वाहन तो दूर मोटरसाइकिल से भी पहुंचा नहीं जा सकता, लेकिन मन में साध थी और शिष्यों का सहयोग मिला तो आदिवासियों के जीवन एवं संस्कृति को नजदीक से देखा और वन के ऐसे वीर पुरुषों के जीवन पर लेखन की प्रेरणा प्राप्त हुई। इसके बाद लगातार भाखर रा भौमिया, आड़ावळ अरड़ायौ से लेकर सततï् आदिवासियों के जीवन और संस्कृति से संबंधित पुस्तकों का लेखन किया।
शेखावत का कहना है कि आदिवासियों से संवाद बनाना अब भी आसान नहीं है। आज भी ये लोग विकास की बयार से दूर है। कई क्षेत्रों में तो वाहन तो दूर मोटरसाइकिल से भी पहुंचा नहीं जा सकता, लेकिन मन में साध थी और शिष्यों का सहयोग मिला तो आदिवासियों के जीवन एवं संस्कृति को नजदीक से देखा और वन के ऐसे वीर पुरुषों के जीवन पर लेखन की प्रेरणा प्राप्त हुई। इसके बाद लगातार भाखर रा भौमिया, आड़ावळ अरड़ायौ से लेकर सततï् आदिवासियों के जीवन और संस्कृति से संबंधित पुस्तकों का लेखन किया।
उत्थान के प्रयास अब भी नाकाफी
आदिवासियों के जीवन को लेकर उनसे चर्चा की तो उन्होंने बताया कि ऋगवेद में वृत्तासुर नामक राक्षस का कथानक आया है। वस्तुत: वृत्तासुर भील था। इस राक्षस ने इंद्र को हाथी समेत पछाड़ दिया था। इसी तरह राजा बलि,हिरण्यकश्यप, शबर, किष्किंधा आदि भी भीलों के क्षेत्र थे। जंगल में रहने के कारण इनकी जीवन शैली ऐसी ही थी। सन् 1885 में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने मुम्बई मे बैठक रखी, जिसमें इनेटसन, बेस फिल्ड और रिजले आदि ने भाग लिया। इस बैठक में तय हुआ कि भारत में बड़ी संख्या में आदिवासी जातियां हैं, इनका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शास्त्रीय अध्ययन जरूरी है। उनका उद्देश्य आदिवासियों के माध्यम से अपनी सत्ता को सुरक्षित रखना था। आजादी के बाद 1956 में मध्यप्रदेश में मर्दुमशुमारी हुई। 1961 में राजस्थान में आदिवासियों का सर्वे हुआ, लेकिन कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। लगातार पिछड़ते जा रहे आदिवासी समाज के उत्थान को लेकर अब तक भी कोई विशेष कार्य नहीं हो रहा है। ये हमारे जंगल के रक्षक रहे, लेकिन अब भी मुख्यधारा से विलग है।
आदिवासियों के जीवन को लेकर उनसे चर्चा की तो उन्होंने बताया कि ऋगवेद में वृत्तासुर नामक राक्षस का कथानक आया है। वस्तुत: वृत्तासुर भील था। इस राक्षस ने इंद्र को हाथी समेत पछाड़ दिया था। इसी तरह राजा बलि,हिरण्यकश्यप, शबर, किष्किंधा आदि भी भीलों के क्षेत्र थे। जंगल में रहने के कारण इनकी जीवन शैली ऐसी ही थी। सन् 1885 में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने मुम्बई मे बैठक रखी, जिसमें इनेटसन, बेस फिल्ड और रिजले आदि ने भाग लिया। इस बैठक में तय हुआ कि भारत में बड़ी संख्या में आदिवासी जातियां हैं, इनका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शास्त्रीय अध्ययन जरूरी है। उनका उद्देश्य आदिवासियों के माध्यम से अपनी सत्ता को सुरक्षित रखना था। आजादी के बाद 1956 में मध्यप्रदेश में मर्दुमशुमारी हुई। 1961 में राजस्थान में आदिवासियों का सर्वे हुआ, लेकिन कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। लगातार पिछड़ते जा रहे आदिवासी समाज के उत्थान को लेकर अब तक भी कोई विशेष कार्य नहीं हो रहा है। ये हमारे जंगल के रक्षक रहे, लेकिन अब भी मुख्यधारा से विलग है।
अनूठी संस्कृति है आदिवासियों की
शेखावत बताते हैं कि आदिवासियों की जीवन शैली आज भी वैसी ही है। वे सुदूर जंगल में रहते हैं और इनके कई बड़े मेले भरते हैं। यहां गंधर्व विवाह की रस्म निभाई जाती है। यहां आदिवासी युवा अपने मनपसंद की युवती से शादी रचाते हैं। इनके मेलों में अब भी दूसरे लोगों का प्रवेश वर्जित है। होली व दीपावली पर वे अपने ढंग से इसे मनाते हैं। होली पर महिलाएं समूह बनाकर नाचती है। हाथ व पांवों पर मेहंदी लगाते हैं और भुजा पर अपना या पति का नाम गुदवाने की परम्परा है। शेखावत कहते हैं ये आदिवासी लोग संस्कृति के सच्चे संवाहक है। झोंपड़ी में रहने वाले इन लोगों को मानवता का तीर्थ कह सकते हैं। शेखावत ने बताया कि भाखर रा भौमियां, संस्कृति री वसीयत, संस्कृति रा वड़ेरा, आड़ावळ अरड़ायौ आदि पुस्तकें पूरी तरह से आदिवासी संस्कृति से केंद्रित हैं। शेखावत अब तक 50 सेअधिक पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके हैं। भारतीय साहित्य अकादेमी सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।
शेखावत बताते हैं कि आदिवासियों की जीवन शैली आज भी वैसी ही है। वे सुदूर जंगल में रहते हैं और इनके कई बड़े मेले भरते हैं। यहां गंधर्व विवाह की रस्म निभाई जाती है। यहां आदिवासी युवा अपने मनपसंद की युवती से शादी रचाते हैं। इनके मेलों में अब भी दूसरे लोगों का प्रवेश वर्जित है। होली व दीपावली पर वे अपने ढंग से इसे मनाते हैं। होली पर महिलाएं समूह बनाकर नाचती है। हाथ व पांवों पर मेहंदी लगाते हैं और भुजा पर अपना या पति का नाम गुदवाने की परम्परा है। शेखावत कहते हैं ये आदिवासी लोग संस्कृति के सच्चे संवाहक है। झोंपड़ी में रहने वाले इन लोगों को मानवता का तीर्थ कह सकते हैं। शेखावत ने बताया कि भाखर रा भौमियां, संस्कृति री वसीयत, संस्कृति रा वड़ेरा, आड़ावळ अरड़ायौ आदि पुस्तकें पूरी तरह से आदिवासी संस्कृति से केंद्रित हैं। शेखावत अब तक 50 सेअधिक पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके हैं। भारतीय साहित्य अकादेमी सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।
आयुर्वेद रत्न शेखावत ने बताया स्वस्थ रहने का राज
शेखावत 87 वर्ष की आयु के हैं और अब भी पूर्णत: स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। अपनी सेहत का राज बताते हुए वे कहते हैं मैंने आयुर्वेद रत्न का अध्ययन किया हुआ है। आयुर्वेद की जीवन शैली अपनाकर ही जीवन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। शेखावत बताते हैं कि नियमित दिनचर्या से बढकऱ कोई औषधि नहीं है। युवाओं को संदेश देते हुए शेखावत कहते हैं कि तनाव ही मुख्य रोग है। जीवन को आनंद से जीना चाहिए। हमारी रसोई में ही कई रोगों को औषधियां विद्यमान है। हल्दी, सौंठ, अजवायन आदि ऐसे पदार्थ है जो सहज सुलभ है और इनके नियमित सेवन से बीमारी नजदीक ही नहीं फटक सकती। उनका कहना है कि कोरोना से डरने की नहीं, सजग रहने की जरूरत है। सरकार की गाइडलाइन की पालना करने के साथ आयुर्वेदिक काढ़े के सेवन से इस महामारी से बचा जा सकता है।
शेखावत 87 वर्ष की आयु के हैं और अब भी पूर्णत: स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। अपनी सेहत का राज बताते हुए वे कहते हैं मैंने आयुर्वेद रत्न का अध्ययन किया हुआ है। आयुर्वेद की जीवन शैली अपनाकर ही जीवन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। शेखावत बताते हैं कि नियमित दिनचर्या से बढकऱ कोई औषधि नहीं है। युवाओं को संदेश देते हुए शेखावत कहते हैं कि तनाव ही मुख्य रोग है। जीवन को आनंद से जीना चाहिए। हमारी रसोई में ही कई रोगों को औषधियां विद्यमान है। हल्दी, सौंठ, अजवायन आदि ऐसे पदार्थ है जो सहज सुलभ है और इनके नियमित सेवन से बीमारी नजदीक ही नहीं फटक सकती। उनका कहना है कि कोरोना से डरने की नहीं, सजग रहने की जरूरत है। सरकार की गाइडलाइन की पालना करने के साथ आयुर्वेदिक काढ़े के सेवन से इस महामारी से बचा जा सकता है।