वे बताती है कि गांवों में पहले बेटियों को अधिक नहीं पढ़ाया जाता था। उनको बचपन में पोलियो हो गया। इस पर देखभाल के लिए गिरादड़ा की ढाणी में रहने वाली नानी उनको अपने साथ ले आई और वहीं के सरकारी स्कूल में भर्ती कराया। इसके बाद पाली में रहने वाले मामा-मामी ने उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने और पैरों पर खड़ा करने की ठानी और पाली लेकर आ गए। उनके पास रहते हुए रेखा ने सातवीं कक्षा उत्तीर्ण की। एक फैक्ट्री में इलेक्ट्रिशियन का कार्य करने वाले उनके पिता ने दो साल गांव में रखा। जब वह दसवीं में आई तो मामा-मामी फिर पाली ले आए। बालिया स्कूल में पढ़ते हुए दसवीं में अच्छे अंक आए तो मामा-मामी ने विज्ञान विषय लेकर डॉक्टर बनने की चाह जगाई। बारहवीं कक्षा में पढ़ते हुए पीएमटी की परीक्षा दी तो उत्तीर्ण हुई और डेंटल में नम्बर आ गया, लेकिन ममेरे भाई ने कहा हमारी बहन बड़ी डॉक्टर बनेगी। इस पर फिर तैयारी की और एक साल में ही एमबीबीएस के लिए प्रवेश मिल गया।
गांव में हर कोई बेटी पढ़ाने को हो गया तत्पर
रेखा बताती है कि वर्ष 2004 में एमबीबीएस में सलेक्शन व 2010 में पीजी में प्रवेश के बाद उनके गांव सहित आस-पास गांवों में भी ग्रामीणों की मानसिकता बदली। उनकी सफलता को देखने के बाद, जो लोग बेटियों को कम पढ़ाने व जल्दी शादी करवाना चाहते थे। वे भी बेटियों को पढ़ाने लगे। वे खुद भी लोगों को बेटियों को बेटों के बराबर समझने और उनको उच्च शिक्षा दिलाने के लिए प्रेरित करती है। वे बताती है कि विद्यालय में भी शिक्षकों ने उनको हमेशा आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया।