12387- हेक्टेयर कुल भौगोलिक क्षेत्र
962.94- हेक्टेयर जिले का वन क्षेत्र
7- प्रतिशत क्षेत्र में फैला है वन अभयारण्य में आग की तरह फैल रहा अंग्रेजी बबूल
देसूरी। अरावली की सुरभ्य शृंखला में स्थित कुम्भलगढ़़ वन्यजीव अभयारण्य में वन विभाग की अनदेखी के कारण जैव विविधता केलिए खतरा बना अंगे्रजी बबूल आग की तरह फै लता जा रहा है। जो अभयारण्य की भूमि को बंजर करता जा रहा है। कुम्भलगढ़ वन्य जीव अभयारण्य में कई प्रकार की वनस्पति मौजूद थी, लेकिन अंग्रेजी बबूल ने सब को लील दिया। कम पानी और बंजर भूमि पर आसानी से पनपने वाला यह पौधा मारवाड़ की धरती के साथ अभयारण्य की जैव विविधता के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है। इससे मारवाड़, गोडवाड़ की जमीन बंजर होती जा रही है। मारवाड़ व गोडवाड़ की धरती पर तीन गुना से ज्यादा अंग्रेजी बबूल मौजूद है। इनकी संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अब यह पौधा वन्यजीव अभयारण्य में आग की तरह फैलता जा रहा है। यह पौधा भूमि केपोषक तत्वों का जबरदस्त दोहन करता है। इससे नाइट्रोजन फिक्सिंग बैक्टीरियां मर जाते हैं। इसके आस-पास सांगरी, केर, कुुंमट, खेजड़ी, धामण जैसी अन्य वनस्पतियां पनप ही नहीं पाती हैं। इस पौधे की पत्तियां इतनी घातक होती हैं कि जिस भूमि पर पड़ जाती हैं उसे बंजर बना देती हैं।
खिंवाड़ा। सडक़ों किनारे खड़ा अंग्रेजी बबूल वाहन चालकों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। बबूल की झाडि़यों के कारण आए दिन हादसे हो रहे हैं। खिंवाड़ा-पाली मुख्य मार्ग के बीच पांचेटिया से भिमालिया तक चार किलोमीटर मार्ग पर विलायती बबूल की भरमार है। दोनों किनारे झाडि़यों से ढके होने के कारण अक्सर हादसे हो रहे हैं।
हरियाली की उम्मीद से लगाया गया विलायती बबूल अब जंगलों को तबाह करने लगा है। इसकी झाडिय़ां ढाक, धोक, कैर, सालर, खैरी, रोंझ, ककेड़ा, जंड, के अलावा औषधीय पौधे गुग्गल, बांसा, चिरमी, ग्वारपाठा, सफेद आक, माल कांगनी, सफेद मूसली, मरोड़ फली, शतावर, गोखरू, जंगली प्याज, हडजुड़, जेट्रोफा, अश्वगंधा और इंद्र जैसे औषधिय गुणों वाली वनस्पतियों को निगल चुका है। यह पूरी प्रजाति समाप्त होने के कगार पर है। इतना ही नहीं इस इलाके में पक्षियों की कई प्रजातियां विचरण करती थी। अब जूली लोरा के कांटे की समस्या के कारण पक्षियों के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो गई है। विदेशी पक्षियों का आगमन कम होने लगा है। बबूल का पेड़ सबसे ज्यादा कार्बन डाई आक्साइड छोड़ता है। भूजल के लिए भी यह खतरनाक है। जूली लोरा वाले क्षेत्रों में जलस्तर तेजी से गिरता है।
जूली लोरा विलायती पौधा है। मारवाड़ में तत्कालीन महाराजा हनुवंतसिंह के शासन में आमजन के लिए अकाल में लकड़ी और रोजगार के लिए पूरे मारवाड़ में अंग्रेजी बबूल के बीज हवाई जहाज से बिखेरे गए थे। 1984 में वन विभाग ने पूरे अरावली क्षेत्र में जूल लोरा के बीज की बारिश हेलीकॉप्टर से की थी। तभी से यह अरावली में पैर पसार चुका है।
जूली लोरा यानी विलायती बबूल का कांटा, इतना सख्त और नुकीला होता है कि मवेशियों और जंगली जानवरों की जान का दुश्मन बना हुआ है। कई मवेशी बबूल के कांटे से अक्सर घायल हो जाते हैं। विलायती बबूल का कांटा इतना बड़ा होता है कि जान निकल आती है।
जैव विविधता के लिए खतरा
विलायती बबूल का जैनेटिक नाम जूली लोरा है। यह विदेश में खासतौर से सेंट्रल अमेरिका में पाया जाता है। लकड़ी की उपलब्धता और मरू प्रसार पर रोक के लिए पूरी दुनिया में इसके बीज छिडक़े गए थे। अब यह जैव विविधता के लिए खतरा बन गया है। एक शोध में पाया गया है कि जूली लोरा प्रतिकूल हालात में भी फलता-फूलता है। इसकी जड़ें गहरे तक होती हैं, जिन्हें उखाडऩा बड़ा मुश्किल होता है। जड़ों से नहीं उखाडऩे पर यह जल्दी ही पनप जाता है। जूली लोरा एलीलोपैथिक सब्स्टेंस नामक विषैला पदार्थ छोड़ता है। इसके चलते आसपास कोई दूसरी वनस्पति नहीं पनपती। पर्यावरण और वनस्पति के अलावा पक्षियों के लिए भी यह हानिकारक है। अंग्रेजी बबूल के पौधे के कांटों से पक्षी घायल हो जाते हैं। इस पर अण्डे देना भी पक्षियों के लिए नुकसानदायक होता है। ज्यादातर अण्डे नीचे गिरकर फूट जाते हैं। अंग्रेजी बबूल की बहुलता के कारण विदेशी पक्षी भी विमुख होने लगे हैं। –डॉ. रेणू कोहली, एसोसिएशट प्रोफेसर, बांगड़ महाविद्यालय (पक्षी एवं पर्यावरण की जानकार)
विलायती बबूल ने हमारी वनस्पति और वनों को खत्म कर दिया। प्रदेशभर में अंग्रेजी बबूल उन्मूलन की मुहिम चलाई जानी चाहिए। मैं लम्बे समय से इसकी मांग कर रहा हूं। विलायती बबूल के कारण ओरण-गोचर खत्म हो गए। अरावली पर्वत शृंखला में वनस्पति समाप्त होने की कगार पर है। नदियों में भी इसकी प्रचुरता ने बाढ़ जैसे खतरे पैदा कर दिए। अंग्रेजी बबूल को जड़ मूल से खत्म नहीं किया तो जल-जंगल और जैव विविधता का नामो-निशान मिट जाएगा। –खुशवीरसिंह जोजावर, विधायक एवं पर्यावरण एक्टीविस्ट
अंग्रेजी बबूल की बहुलता पर्यावरण के लिए नि:संदेह चिंताजनक है। अरावली क्षेत्र में भी बड़ी तादाद में इसकी उपलब्धता है। अंग्रेजी बबूल के पौधे को काटने के बाद लगातार पांच साल तक नजर रखी जाए तभी वह पूरी तरह से खत्म हो सकता है। यह पौधा एक किलोमीटर के दायरे में नमी सोख लेता है। इससे दूसरी वनस्पति नहीं पनपती। अंग्रेजी बबूल को लेकर विभागीय निर्देशों के अनुसार कार्रवाई की जाएगी। –प्रमोदसिंह नरूका, रेंजर, जोजावर