चिरमी को गूंजा व रत्ती के नाम से भी जाना जाता है। इसका संस्कृत नाम काकणंती व लेटिन नाम एबरस प्रीकेटोरियस है। देसूरी क्षेत्र के आस-पास के खेतों व बाडों व कुंभलगढ वन्य जीव अभ्यारण्य में जहां-तहां आसानी से देखी जा सकती है। छोटे अंडाकार व आधा भाग लाल व आधा काला रंग से यह काफी आकर्षक दिखाई देती है। बारिश के मौसम में चिरमी की बेल लगती है।
बिना बीज डाले ही प्राकृतिक रूप से यह पैदा की जाती है और पल्लवित होती है और पूरी बाड को ही ढक लेती है। खेतों में यह अक्सर थूहर की बाड़ पर अधिक दिखाई देती है। इस बेल में फलियां लगती हैं और जब यह परिपक्व होकर प्रस्फुटित होती है, तो इसमें आकर्षक चिरमी दिखाई देने लगती है। कभी चिरमी तोल की सबसे छोटी इकाई या परिणाम के रूप में भी काम में ली जाती है। इस रूप में ही इसे रत्ती या गूंजा कहा जाता है।
औषधीय महत्व भी
इसका अपना औषधीय महत्व भी है। इसकी जड़ पक्षाघात के रोगियों के लिए रामबाण औषधि के रूप में काम आती है। इसके अतिरिक्त जलन, कब्जी व बच्चे के मिरगी रोग के उपचार में भी इसका उपयोग है। लोगों को इस सम्बंध में पर्याप्त जानकारी नहीं होने और इसके संरक्षण के सरकारी प्रयास नहीं होने से हर साल यह वनौषधी बिना उपयोग के ही नष्ट हो जाती है।
इसका अपना औषधीय महत्व भी है। इसकी जड़ पक्षाघात के रोगियों के लिए रामबाण औषधि के रूप में काम आती है। इसके अतिरिक्त जलन, कब्जी व बच्चे के मिरगी रोग के उपचार में भी इसका उपयोग है। लोगों को इस सम्बंध में पर्याप्त जानकारी नहीं होने और इसके संरक्षण के सरकारी प्रयास नहीं होने से हर साल यह वनौषधी बिना उपयोग के ही नष्ट हो जाती है।