चांदनी रात में रोज प्रैक्टिस करने के कारण नाम के पीछे लगा ‘चंद’
ध्यानचंद के पिता सेना में थे और उनका बचपन साधारण था। ध्यानचंद ने भी पिता के कदमों पर चलते हुए सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया और यह एक ऐसा फैसला था, जिसने भारतीय हॉकी को बदलकर रख दिया था। एक दिलचस्प किस्सा है। सैनिक होने के दौरान ध्यानचंद चांद की रोशनी में अपने खेल को परखते और अपनी कमजोरियों को सुधारते थे। चांदनी रात में उनको रोज प्रैक्टिस करते देख दोस्तों ने ‘चंद’ कहकर पुकारना शुरू कर दिया, लेकिन खेल के प्रति उनके ‘ध्यान’ ने एक ऐसी खेल शैली विकसित की, जो विरोधियों के लिए अनजान थी। हॉकी के प्रति उनके रुझान ने सैन्य अधिकारियों को समझा दिया कि यह लड़का कुछ खास है।
1928 में भारतीय हॉकी टीम में हुए शामिल
1928 में ट्रायल के बाद ध्यानचंद को भारतीय हॉकी टीम में शामिल किया गया। उस समय भारत ब्रिटिश राज के अधीन था और किसी को भी इस हॉकी टीम से एम्स्टर्डम ओलंपिक में किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं थी। लेकिन ‘जादूगर’ ने चमत्कार करके दिखाया। ध्यानचंद के नेतृत्व और खेल कौशल ने सभी धारणाओं को गलत साबित कर दिया। ऐसी स्किल वाला खिलाड़ी समकालीन दुनिया के लिए नया था। चांद की रोशनी में अपने खेल को आजमाने वाले ध्यानचंद ओलंपिक में सूरज की तरह चमक गए। वह मैदान में उतरते और गोल दागते….मैदान पर आते, फिर गोल करते। यह नियम बन गया था।
1928 के ओलंपिक में भारत को दिलाया पहला स्वर्ण पदक
इस टूर्नामेंट के 5 मैचों में 14 गोल ध्यानचंद की हॉकी से थे। भारत ने फाइनल में नीदरलैंड को 3-0 से हराकर पहली बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता, जिसमें ध्यानचंद ने अकेले ही दो गोल किए थे। लेकिन यह कौशल केवल गोल करने तक सीमित नहीं था। उनकी हॉकी स्टिक में मानो कोई जादू था। गेंद मानो उनकी स्टिक से चिपक जाती थी और विरोधी टीम के खिलाड़ी बस बेबस होकर मास्टर के ‘मास्टर क्लास’ को निहारते ही रह जाते थे।
1932 में अमेरिका को 24-1 से हराया
इसी अद्भुत खेल शैली के कारण ही वह ‘हॉकी के जादूगर’ हैं। ध्यानचंद की हॉकी की हनक ने 1932 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक में विपक्षियों को पस्त किया। ध्यानचंद की टीम ने फिर स्वर्ण पदक जीता। इस बार वह कप्तान भी थे। भारत ने बड़े निर्मम तरीके से इस टूर्नामेंट में अमेरिका को 24-1 से हराया था, जो आज भी एक रिकॉर्ड है। ध्यानचंद नाम का तूफान रोके नहीं रुका और भारतीय हॉकी टीम ने एक और गोल्ड मेडल जीत लिया था।
ध्यानचंद ने विनम्रता से ठुकराया हिटलर का ऑफर
बर्लिन की कहानी भी यही रही। ध्यानचंद का एक और ओलंपिक और भारत को एक और गोल्ड मेडल। हां, बर्लिन हिटलर की वजह से भी चर्चित था। एडोल्फ हिटलर ने ध्यानचंद को करीब से देखा जर्मन तानाशाह इस मैजिशियन को देखता रह गया। मंत्रमुग्ध हिटलर की ओर से ध्यानचंद को जर्मनी में बसने का ऑफर भी आया, जिसे ध्यानचंद ने विनम्रता से ठुकरा दिया। तीनों ओलंपिक के 12 मैचों में अकेले दागे 37 गोल
इन तीनों ओलंपिक के 12 मैचों में 37 गोल करने वाले ध्यानचंद विपक्षी टीमों के लिए अबूझ पहेली रहे। यह दुर्भाग्य है कि आजाद भारत को ध्यानचंद के साथ ओलंपिक खेलने का सौभाग्य नहीं मिला। इससे पहले दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध के लपेटे में आ चुकी थी। 1948 में जब ओलंपिक हुए, तब तक ध्यानचंद भी 40 साल की उम्र को पार कर चुके थे। उस ओलंपिक में ध्यानचंद नहीं खेले, लेकिन तब तक वह भारतीय हॉकी की गाड़ी को बहुत आगे बढ़ा चुके थे।
गौरवगाथा के नायक हैं… मेजर ध्यान चंद
ध्यानचंद ने टीम को गजब का आत्मविश्वास और प्रतिष्ठा दी। भारत ने हॉकी में 1948, 1952 और 1956 में भी गोल्ड मेडल जीता। ध्यानचंद ने जो हॉकी शुरू की थी वह आज भी हमें भावुक करती है। भारत ने हाल में लगातार दो हॉकी ओलंपिक मेडल जीते और देशवासियों की आंखों में आंसू थे। हॉकी ओलंपिक में भारत का गौरव रहा है। और उस गौरवगाथा के नायक हैं… मेजर ध्यान चंद।
3 दिसंबर 1979 को ली अंतिम सांस
वह मेजर ध्यानचंद जिनके जन्मदिन को भारत में ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान ‘मेजर ध्यान चंद खेल रत्न अवार्ड’ भी ध्यानचंद के नाम पर है। 3 दिसंबर 1979 को लीवर कैंसर के कारण भारतीय हॉकी के सबसे महान खिलाड़ी ने दुनिया को अलविदा कह दिया था।