स्त्री अन्न भी है, अन्न की प्रयोगशाला भी है। अन्नपूर्णा कहलाती है। अन्न को ब्रह्म कहा है। उसका हर सहयोगी भी उतना ही शक्तिशाली-प्रभावशाली होगा। सभी बीज सोम होते हैं- अग्नि में आहुत होते हैं। स्त्री भी सौम्य रूप बीज ही है, पुरुषाग्नि में आहुत होती है। पुरुष के रेत की सोम संज्ञा है। शोणिताग्नि में आहुत होता है। रेत का शुक्राणु-पुंभू्रण-द्युम्न कहलाता है, शोणिताग्नि का स्त्री भू्रण वर्च है। द्युम्न* और वर्च* के योग से डिम्ब का निर्माण होता है। रेत के द्युम्न-वर्च-भ्राज* रूप ही ब्रह्म-क्षत्र-विट् वीर्य कहलाते हैं। यही सोम-अग्नि प्रकाश रूप है। इन्हीं के त्रिवृत्तिकरण से सृष्टि आगे बढ़ती है। सौम्या होने से स्त्री स्वयं गर्भस्थ, परोक्ष तथा सूक्ष्म भाव में रहती है। मादा शरीर उसका स्थूल (अपरा) भाव है। स्थूल से सूक्ष्म की सृष्टि नहीं हो सकती और जीवात्मा स्थूल नहीं हो सकता। अत: नारी का स्त्रैण भाग स्थूल के गर्भ में रहता है।
सोम ही अग्नि बन जाता है, अग्नि ही शीतल होकर सोमरूप ले लेता है। सोम-अग्नि में आहुत होकर जलता नहीं है- नई रचना करने लग जाता है। अग्नि रूप होकर चिति करने लगता है। रेत पर चिति कर-करके द्रव्य को घनरूप आकृत कर देता है। जिस प्रकार मातरिश्वा वायु जल को पृथ्वी रूप में बदल देता है। सूक्ष्म को स्थूल रूप दे देना, पूरी यात्रा में साथ रहते हुए प्रकृति के नियमों के आधार पर आकृति का निर्माण करना उसे सूक्ष्म और स्थूल दोनों धरातलों पर जोड़े रखता है। एक ही बीज (ब्रह्म) से ८४ लाख योनियों की आकृति का निर्माण कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है। यही प्रकृति की दिव्यता है।
बीज एक, मां भी एक, किन्तु प्रत्येक प्राणी का प्रारब्ध भिन्न होता है। वह भी प्रकृति ही तय करती है। सभी ८४ लाख योनियों का अतीत-अनागत-वर्तमान प्रकृति तय भी करती है और संचालित भी करती है। अर्थात् प्रत्येक पत्नी प्रकृति रूप में अपने पति का प्रारब्ध जानती भी है, उसका संचालन भी करती है।
पति के निर्माण और मोक्ष तक ले जाने के लिए उसके पास सात जन्म का समय होता है। श्रद्धा-स्नेह-वात्सल्य-प्रेम इन चारों शस्त्रों से निर्माण करती है। परिणाम प्रारब्ध और निष्ठा पर निर्भर करता है। संकल्पवान पत्नी के भीतर का आग्नेय स्वरूप ही कार्य करता है। समझने की एक बात यह भी है कि प्रकृति एक निश्चित स्वप्न और संकल्प लेकर पति के पास आती है। पुरुष निष्क्रिय रहता है, प्रकृति गतिमान तत्त्व है। वही प्रत्येक जीवात्मा की गति और प्रारब्ध तय करती है। अत: जन्म से ही उस कार्य में लग जाती है। उसे ज्ञान रहता है कि किस पुुरुष के प्रारब्ध का निर्माण करना है अथवा उसे ध्वस्त करना है। उसे ९९ असुर तथा ३३ देवताओं के स्वरूप का ज्ञान होता है। जड़ रूप में वह स्थूल शरीर में कार्य अवश्य करती है, किन्तु चेतना का व्यापार व्यक्त नहीं होता। उसकी किशोरावस्था तक की यात्रा एवं युवाकाल में प्रवेश से इसका पूरा चित्रण कर सकते हैं। विवाह संस्था की व्याख्या अद्र्धनारीश्वर रूप में की गई है। पुरुष के हृदय में पुरुष-स्त्री दोनों के प्राण पुरुष रूप (आग्नेय) ही रहते हैं। दोनों के साथ अपनी-अपनी सात पीढिय़ों के पितृ-प्राण रहते हैं। रेत में पति के स्थूल भाग भी रहते हैं, स्त्री के पिता की देह के स्थूल अंश नहीं रहते, पितरों के ही अंश रहते हैं। स्त्री देह एक स्वतंत्र रसायनशाला है। जो सम्मिश्रण पुरुष शरीर से प्राप्त होता है, उसी से मूर्ति तैयार की जाती है। यह पदार्थ (मैटर) का भण्डारण क्षेत्र है, अन्न का क्षेत्र है, चितिकरण का क्षेत्र है। स्त्री हृदय के तीनों अक्षर प्राण और उनकी तीनों शक्तियों क्षर ब्रह्म की पांचों कलाओं के पंचीकरण सहित स्थूल देह का निर्माण करती है।
रेत के जल से आठ स्तरों पर स्थूल देह तैयार होती है, जैसे समुद्र जल से पृथ्वी (पंच महाभूत) का निर्माण होता है। शरीर के निर्माण का दूसरा पक्ष अन्न का होता है। यहां भी प्रक्रिया वही रस के बल से स्वरूप ग्रहण करने की है। अन्न से रस बनता है। दोनों ही ब्रह्म के पर्याय है। रस से रक्त बनता है। इसका स्त्री देह में एक भाग शोणित (आर्तव) निर्माण की दिशा में कार्य करता है। दूसरा भाग ओज तथा मन को पुष्ट करता है। पुरुष में शुक्र का स्वरूप समर्पक बनता है।
कार्यात्मक विश्व में अपरिवर्तनीय और परिवर्तनीय दोनों ही तत्त्व रहते हैं। दोनों का एकत्र समन्वय ही सृष्टि का बड़ा आश्चर्य है। एक अमृत तत्त्व है, दूसरा मृत्यु भाग। दोनों ही अहं रूप आत्मा के विवर्त हैं। ‘अमृतं चैव च मत्युंच सदसच्चाहमर्जुन’-(गीता)। यह आधार-आधेय रूप नहीं है। ये अन्तर-आन्तरीय भाव से एकत्र हैं। अंगुली में क्रिया है अथवा क्रिया अंगुली में है।
गर्भ में दोनों ही तत्त्वों का निर्माण साथ-साथ होता है- अमृत और मृत्यु। परा-अपरा दोनों प्रकृतियां कार्य करती दिखाई पड़ती हैं। स्त्री दोनों छोर के मध्य सेतु रूप कार्य करती है। अमृत भाव में षोडशकल आत्मा और मत्र्य भाव में अष्टदल प्रकृति (अपरा) होती है। एक चेतन है, दूसरी जड़ है। स्त्री चेतना दोनों से जुड़ी है, सदा दोनों के मध्य आदान-प्रदान बनाए रखती है। अत: सूक्ष्म से नित्य सम्पर्क रहता है। पुरुष को सूक्ष्म से सम्पर्क करने के लिए भीतर प्रवेश का अभ्यास करना पड़ता है।
स्त्री सूक्ष्म हृदय की कामनाओं को स्थूल में अभिव्यक्त करती है। वैसे तो वह स्वयं कामना ही है। फिर भी सूक्ष्म की कामना प्रारब्ध की होने से टाली नहीं जा सकती है। ईश्वरीय कामना कहलाती है जिसकी पूर्ति के लिए मानव जन्म लेता है।
स्थूल कामना जीवात्मा की होती है। यहां उसकी प्रकृति एवं वातावरण (संग) नई कामनाओं का मुख्य स्रोत है। इसी के लिए कहा है- सङ्गात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते। (२/६२)। आगे जाकर गीता ने जीवात्मा की इस निर्बलता को नरक का द्वार कह दिया।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
(16.21)
जननी (प्रकृति) ही स्वर्ग है- नरक है। जन्म और मृत्यु दोनों है। दोनों का अन्न एक ही है- स्त्री!
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
(16.21)
जननी (प्रकृति) ही स्वर्ग है- नरक है। जन्म और मृत्यु दोनों है। दोनों का अन्न एक ही है- स्त्री!
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