टेलीविजन चैनलों के अधिकतर कार्यक्रम दशहरे के बाद से ही दीपावली की याद दिलाना शुरू कर देते हैं। हमारे कथित पसंदीदा चेहरे पूरी विनम्रता और आत्मीयता के साथ दीपावली की बधाई देने और दीपावली के अपने आयोजन में शरीक होने का आमंत्रित देते नजर आते हैं।
त्योहार में हमें क्या करना है, हमारी क्या जरूरतें हैं, यह हम खुद तय नहीं करते। हमारी प्राथमिकताएं तय कर दी जाती हैं और हम सहज भाव से उसका अनुपालन करते हैं। दशहरे पर रामलीला देखने की बजाय ‘डांडिया नाइट’ में जाना है, यह हमसे तय करवा दिया जाता है। दीपावली पर मिठाई लेनी है या चॉकलेट से ही मुंह मीठा कर लेना चाहिए, इस बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी कोई प्रभावित करता है और हमें इसका अहसास भी नहीं होता। मिट्टी के दीपक के स्थान पर ‘फ्लोटिंग कैंडल’ प्रचलन में कैसे आ गए, हममें से शायद ही कोई इसका उत्तर ढूंढ सके, लेकिन सच है कि दीपावली से अब दीपक ही बाहर हो रहे हैं। रंगीन झालरें हैं, कैंडल हैं लेकिन दीये गुम हो रहे हैं। बड़े बल्ब हैं, लेकिन कंदील नहीं हैं। भारत की विविधता त्योहारों से पहचानी जाती है, तो त्योहारों को मनाने की विशिष्टता से भी।
त्योहार परम्परा के साथ जुड़े थे। परम्परा से हम त्योहारों को मनाने के तौर तरीके सीखते थे। गांव, समाज समय के साथ छूट जाता था, लेकिन परम्पराएं हमारे साथ रहती थीं, हमारे साथ जाती थीं। यह तब की बात थी जब ‘विलेज’, विलेज ही था, ‘ग्लोबल विलेज’ में विलीन नहीं हो गया था। अपने स्व के गौरव के साथ हम टिके थे। बाजार के लिए भारत का यह स्व बाधक था। यह भी कोई मुल्क है, कोई दीपावली ‘लुक्का पातीÓ खेल कर मना रहा है, तो कोई सिर्फ दीपक जला कर। कोई लड्डू खा रहा है, तो कोई बताशे। अरे एक तरह से रहो भाई, ताकि मैन्युफैक्चरिंग और सप्लाई में सहूलियत हो।
फिल्मों से लेकर विभिन्न चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों ने हमें दीपावली का एक नया तरीका समझाया। स्टाइलिश कपड़े पहनो, स्टाइलिश जेवर पहनों, स्टाइलिश कैंडल जलाओ, स्टाइल से खड़े हो जाओ, स्टाइल से पूजा कर लो, बस हो गई ‘सभ्य’ लोगों की दीपावली। ‘एलीट’ में शामिल होना चाहते हैं, तो बस यही तरीका स्वीकार्य करना होगा दीपावली का। हम इसको इसलिए सहजता से स्वीकार कर लेते हैं कि हम लोगों ने अपनी परम्परा पर गर्व करने की आदत डाली ही नहीं। क्या इस दीपावली को हम ‘अपनी’ दीपावली बनाने का प्रयास करेंगे?