यह खेल नया नहीं है। समस्याओं का मानवीय पहलू और न्याय कभी भी महाशक्तियों की चिंता का विषय नहीं रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने पराजित राष्ट्रों के साथ जैसा क्रूर व चालाक व्यवहार किया था, वह भूला नहीं जा सकता है। कितने ही देशों का ऐसा विभाजन कर दिया गया कि वे इतिहास की धुंध में कहीं खो ही गए। महाशक्तियों ने विश्व को अपने स्वार्थगाह में बदल लिया। अफगानिस्तान के बहादुर व शांतिप्रिय नागरिकों के साथ भी महाशक्तियों ने वैसा ही कायरतापूर्ण और बर्बर व्यवहार किया। सबसे पहले वैभव के भूखे ब्रितानी साम्राज्यवाद ने, फिर साम्यवाद की खाल ओढ़ कर आए रूसी खेमे ने और फिर लोकतंत्र की नकाब पहने अमरीकी खेमे ने। यदि अंतरराष्ट्रीय शर्म जैसी कोई संकल्पना बची है, तो आज का अफगानिस्तान दुनिया के हर लोकतांत्रिक नागरिक के लिए शर्म का विषय है। रूसी चंगुल से निकाल कर अफगानिस्तान को अपनी मुट्ठी में करने की चालों-कुचालों के बीच अमरीका ने आतंककारियों की वह फौज खड़ी की, जिसे तालिबान या अलकायदा जैसे कई नामों से हम जानते हैं। अमरीकी कहते हैं कि अफगानिस्तान पर किस तरह अरबों रुपए खर्च किए, हथियार दिए, अफगानियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया। असल में वे कहना यह चाहते हैं कि अफगानियों में अपनी आजादी बचाने का जज्बा नहीं है। कोई उनसे पूछे कि अमरीका जब जन्मा था तब अफगानिस्तान था या नहीं? अगर अफगानी पहले से धरती पर थे, तो साफ है कि वे अपना देश बनाते भी थे और चलाते भी थे।
म्यांमार में तो फौजी तानाशाही से लड़ कर जीते लोकतंत्र का शासन था न। आंग सान सू की न महाशक्तियों की कठपुतली थीं, न आतंककारियों की। उनकी अपनी कमजोरियां थीं, लेकिन म्यांमार की जनता ने उन्हें अपार बहुमत से दो-दो बार चुना था। उनकी सरकार का गला घोंट कर फौज ने सत्ता हथिया ली। इसके बाद की कहानी जैसी अफगानिस्तान में है, वैसी ही म्यांमार में है।
म्यांमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है। राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं। हम यह भूल ही गए हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति हो नहीं सकती है, जिसमें किसी का अहित हमारा राष्ट्रहित हो। शायद समय भी लगे और अनगिनत कुर्बानियां भी देनी पड़ें, लेकिन अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगी, अपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थाई व्यवस्था बहाल करेगी। सू की फौजी चंगुल से छूटें या नहीं, फौजी चंगुल टूटेगा जरूर। हम खूब जानते हैं कि अपने पड़ोस में स्वतंत्र, समतापूर्ण और खुशहाल म्यांमार व अफगानिस्तान हम देखेंगे जरूर, लेकिन हम यह नहीं जानते कि इतिहास हमें किस निगाह से देखेगा।