धर्म, जाति और वर्ग की सीमाओं को लांघते हुए बेटियां आज भी पराई धरोहर हैं। एक ऐसी धरोहर, जिनकी विदाई की कीमत चुकाई जाती है। जो अपना घर छोड़कर किसी दूसरे के घर को त्याग, तपस्या और समर्पण से संभालती हैं, उन्हें उस घर में अपना पहला कदम रखने के लिए लाखों का दहेज देना होता है। क्या यह परंपरा के नाम पर किया जाने वाला सौदा पीड़ादायक नहीं है? यह कितना हास्यास्पद है कि जिस परंपरा को समस्या मानकर स्कूल और कॉलेज में निबंध लिखे जाते हैं, वह शब्दों का खेल मात्र होता है। इस परंपरा की प्रासंगिकता क्या है?
दहेज की समस्या अब भी बनी हुई है। विश्व बैंक के एक गहन शोध की रिपोर्ट जिन तथ्यों को उजागर करती है, वे भारत में बेटियों की स्थिति को बखूबी बयान कर रहे हैं। यह अध्ययन 1960 से लेकर 2008 के मध्य देश के उन 17 राज्यों में किया गया, जहां देश की 96 प्रतिशत आबादी रहती है और इसमें 40000 शादियों में दहेज लेन-देन की वस्तु-स्थिति को जानने का प्रयास किया गया। परिणाम चौंकाने थे। करीब 95 प्रतिशत शादियों में दहेज दिया गया था। यह स्थिति तब है, जब 1961 से इसे गैरकानूनी घोषित किया जा चुका है। इस कानून का अमूमन इस्तेमाल तभी होता है, जब परिवार में टकराव और विलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए, अन्यथा चुप्पी साध ली जाती है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट ने जिस तथ्य का उल्लेख किया है, उसने उस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया कि लड़कियों की उच्च शिक्षा और स्वावलंबन से दहेज प्रथा पर अंकुश लगाया जा सकता है। भारत में जिन दो राज्यों में सबसे अधिक दहेज का लेन-देन हो रहा है, वे हंै केरल और गुजरात। दोनों ही राज्यों में महिलाओं की स्थिति देश के अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अच्छी है। शिक्षित बच्चियों के अभिभावक दहेज की मोटी रकम चुका रहे हैं। यह चिंताजनक स्थिति है। देश में लगभग हर चार घंटे में दहेज के कारण एक महिला मारी जाती है। फिर भी हम दावा करते हैं कि दहेज की मोटी रकम बेटियों के लिए जीवन भर के सुखों की व्यवस्था है। क्या कभी यह विचार किया गया कि जिस सुख और सुरक्षा की कीमत अभिभावक अपने जीवन भर की कमाई देकर चुकाते हैं, वह स्वयं से सबसे बड़ा धोखा है। खरीद-फरोख्त तो निर्जीव वस्तुओं की होती है। तो क्या बेटियां वस्तु हैं? अगर नहीं, तो उनके लिए दूल्हे क्यों खरीदे जाते हैं?
अगर दहेज के दबाव के लिए लड़के वालों को कठघरे में खड़ा किया जाता है, तो लड़की वाले भी किसी भी स्थिति में स्वयं को निर्दोष नहीं मान सकते। अगर लड़कों की कीमत उनके परिवारों ने लगाई है, तो उसे देना या न देना बेटियों के अभिभावकों पर निर्भर करता है। जिस क्षण से बेटियों का विवाह जीवन का आखिरी लक्ष्य नहीं रहेगा, जिस क्षण से विवाह प्रतिष्ठा का ***** नहीं रहेगा, हालात बदल जाएंगे। बच्चियों के जन्म के साथ ही उन्हें निरंतर यह अहसास नहीं कराया जाएगा कि जिस घर में उनका जन्म हुआ है, वहां वे कुछ सालों की मेहमान हंै, उसी पल से लड़के अपनी कीमत लगाना भूल जाएंगे। यह काम बहुत मुश्किल है। एक या दो परिवारों की सोच बदलने भर से दहेज मुक्त भारत का मार्ग बहुत कठिन है। राह तो तब आसान होगी, जब समाज के संवेदनशील और प्रभावशाली वर्ग इसके खिलाफ आवाज उठाएंगे। हमें समझना ही होगा कि बेटियों को दहेज देकर विदा करना, उनके दुखों के दरवाजों को खोलने जैसा है।