अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रम्प की जीत के बाद पाकिस्तान की चिंता बढ़ गई है। उसे डर है कि नई अमरीकी सरकार उसकी गतिविधियों पर अब तीखी नजर रखेगी और पहले की तरह उदारता नहीं बरतेगी। उसकी चिंता स्वाभाविक है और इसके खास कारण भी हैं। ट्रंप के पहले कार्यकाल के अंत के बाद पिछले चार साल में भू-राजनीतिक स्थिति नाटकीय रूप से बदल चुकी है। अगस्त 2021 में पाकिस्तान के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आया था। अमरीकी सेना की अफगान भूमि से शीघ्र वापसी में पाकिस्तान ने तालिबान की मदद की थी। उस समय के प्रधानमंत्री इमरान खान ने दावा किया था कि अफगान जनता ने ‘जंजीरों से मुक्ति’ पा ली है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अगस्त 2021 में बाइडन प्रशासन की निगरानी के अधीन जो हुआ, वह डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुए दोहा समझौते की परिणति थी।
दोहा समझौते के रूप में प्रसिद्ध अमरीका और तालिबान के बीच हस्ताक्षरित यह शांति समझौता 29 फरवरी 2020 को कतर के दोहा में हुआ था, जिसका उद्देश्य 2001-2021 के अफगान युद्ध का अंत करना था। इमरान खान ने इस उम्मीद के साथ तालिबान को शांति समझौते में शामिल होने के लिए राजी करने में अमरीका और डॉनल्ड ट्रंप की मदद की थी कि अफगानिस्तान में दोस्ताना तालिबानी निजाम स्थापित होने से पाकिस्तान को भू-रणनीतिक बढ़त मिलेगी। साथ ही वाशिंगटन के साथ संबंधों में सुधार होगा। यह पाकिस्तान के लिए एक सपने जैसा था, जो जल्दी ही कड़वा साबित हुआ। अमरीका ने पाकिस्तान का हाथ थामने से इनकार कर दिया और अफगानिस्तान में तालिबान शासन की वापसी इस्लामाबाद के लिए आपदा साबित हुई, क्योंकि तालिबान समर्थित तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान प्रांतों में सुरक्षा बलों और नागरिकों पर दुस्साहसी आतंकी हमले शुरू कर दिए। यह स्थिति पाकिस्तान के लिए एक दु:स्वप्न बन गई है, क्योंकि उसे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अस्थिरता पैदा करने वाले इस संकट से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि पाकिस्तान के सदाबहार दोस्त चीन ने अपने नागरिकों को टीटीपी और अन्य समूहों द्वारा निशाना बनाए जाने पर पाकिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर अपनी नाराजगी जताई है। उसने पाकिस्तान सरकार और सैन्य बलों पर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर काम कर रहे चीनी नागरिकों के लिए सुरक्षित माहौल मुहैया करवाने में विफल रहने का आरोप लगाया है। बताया जा रहा है कि बीजिंग ने यह भी सुझाव दिया है कि वह पाकिस्तान में कार्यरत अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए अपनी सेना तैनात कर सकता है, जो इस बात का संकेत है कि पाकिस्तान सुरक्षा के मोर्चे पर पूरी तरह विफल रहा है। 20 जनवरी, 2025 को डॉनल्ड ट्रंप के 47वें अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण करने के साथ ही पाकिस्तान की चिंता कई गुना बढ़ जाएगी। पाकिस्तान जानता है कि अमरीका के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं हैं और नई सरकार में ये और खराब हो सकते हैं, क्योंकि ट्रम्प ‘अमरीका फस्र्ट’ नीति के प्रबल समर्थक हैं। ट्रंप ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह आयात पर उच्च शुल्क लगाएंगे। अमरीका, पाकिस्तानी वस्तुओं, विशेष रूप से कपड़े, का सबसे बड़ा आयातक है। ऐसे में पाकिस्तान को अमरीका के भू-राजनीतिक समीकरणों में अपनी जगह खोने का डर है। साथ ही निर्यात राजस्व व आर्थिक मदद में कटौती का डर सता रहा है। डॉनल्ड ट्रंप भारत के जांचे-परखे मित्र हैं। अमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने 5 नवंबर को अपनी जीत के पहले ही दिन फोन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई संदेश लिया। वस्तुत: मोदी उन विश्व नेताओं में शामिल थे, जिनकी कॉल ट्रंप ने पहले-पहल सुनी। यह दोनों नेताओं और उनके देशों के संबंधों में गर्मजोशी को रेखांकित करता है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सभी क्षेत्रों में भारत का वैश्विक प्रभाव बढ़ा है। अमरीका में चाहे ओबामा, ट्रंप, बाइडन या अब फिर से ट्रंप का प्रशासन हो, रणनीतिक रूप से भारत की ओर झुकाव रखता है। अमरीका और भारत क्वाड, हिंद-प्रशांत क्षेत्र, जी-20 और कई अन्य वैश्विक मंचों पर रणनीतिक साझेदारी रखते हैं। यह विश्व मंच पर उभरते नए संबंध हैं, जहां अमरीका और भारत गुटीय राजनीति और कूटनीति का हिस्सा न होते हुए भी साथ आ रहे हैं। भारत ने रूस पर एक स्वतंत्र और वाशिंगटन से विपरीत रुख अपनाया, इसके बावजूद दोनों देशों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध कायम हैं।
अमरीका ने पाकिस्तान के मित्र चीन के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने की धमकी दी है। इसलिए पाकिस्तान में यह समझा जा रहा है कि अमरीका उसे चीन के चश्मे से देखेगा जो उसके लिए अच्छा नहीं है और भारत के नजरिए से भी देखेगा, यह भी उसके लिए हानिकारक है। पाकिस्तान विश्व मंच पर और भी अलग-थलग पड़ सकता है, विशेष रूप से दक्षिण एशियाई क्षेत्र में उसे अधिक अलगाव का सामना करना पड़ सकता है।