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प्रकृति के साथ रवैया शांतिपूर्ण नहीं तो क्या बदलेगा?

दुनिया महामारी की एक और लहर की चपेट में है, मनुष्य जाति को पृथ्वी के प्रबंधन का पुराना ढर्रा छोड़ना होगा। महामारी से मुकाबले के लिए जनस्वास्थ्य तंत्र में पर्याप्त निवेश जरूरी है, स्वास्थ्य कर्मियों की पर्याप्त संख्या जरूरी है, ताकि सभी की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी जरूरतें पूरी की जा सकें।

Jan 05, 2022 / 03:52 pm

Patrika Desk

What will change if the attitude with nature is not peaceful?
सुनीता नारायण
(सतत विकास की हरित अवधारणा की पैरोकार, सीएसई की महानिदेशक)


महामारी के बीच मैं क्या कामना कर सकती हूं? अगर हम पृथ्वी का प्रबंधन पुराने ढर्रे से ही करते रहे तो यह साल हमारे लिए ‘नया’ साल कैसे बन पाएगा। अनिश्चितता की इस दुनिया में एक बात तय है प्रकृति आक्रोशित है और हमें कह रही है- बस, अब बहुत हो चुका। 2020 की शुरुआत में हमने एक दिन महसूस किया कि महज एक वायरस ने हमारी दुनिया को पूरी तरह थाम दिया। हमने वह सब किया, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। सारी गतिविधियां बंद कर दी गईं। हम सब घरों में बंद हो कर रह गए, समाज में उठना-बैठना बंद हो गया। मास्क पोशाक का अहम हिस्सा बन गया और हम ऑनलाइन काम करने लगे। पिछले दो सालों में हमने भयानक विध्वंस देखा। इससे पहले कभी इतनी मौतें और हताशा नहीं देखी गई। महामारी ने अमीर-गरीब में कोई अंतर नहीं किया।
फिर वैक्सीन आने से उम्मीद जगी कि महामारी का अंत होने ही वाला है। सवाल यह था कि दुनिया के हर व्यक्ति को वैक्सीन लगे। काफी कुछ कहा जा रहा था कि अगर वैक्सीन नहीं लगी तो वायरस का नया वैरिएंट आ जाएगा। महामारी से जंग वैक्सीन और वायरस के विभिन्न वैरिएंट में तब्दील हो गई। ‘जब तक एक भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं है, कोई भी सुरक्षित नहीं है।’ यह कथन जीत का मंत्र माना जाने लगा।

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हम नए साल में प्रवेश की तैयारी कर ही रहे थे कि ‘ओमिक्रॉन’ वैरिएंट आ गया। 2020 कोरोना की भेंट चढ़ गया तो 2021 डेल्टा की। अब 2022 पर ओमिक्रॉन का खतरा मंडरा रहा है। बताया जा रहा है कि ओमिक्रॉन में वैक्सीन से मिली प्रतिरोधक क्षमता को भी धता बताने की क्षमता है। इसलिए अब वैक्सीन लगवा चुके लोगों को बूस्टर डोज देना ही उपाय बताया जा रहा है ताकि ओमिक्रॉन के खतरे को कम किया जा सके।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) जो कुछ समय पहले तक ‘संपन्न’ देशों से गुजारिश कर रहा था कि वे बूस्टर डोज का विकल्प न अपनाएं बल्कि गरीब देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराएं, वही डब्ल्यूएचओ अब इन देशों को भी बूस्टर डोज की सलाह दे रहा है। डर है कि कहीं 2022 भी पिछले साल जैसा ही न रहे। महामारी जल्द खत्म होती दिखाई नहीं दे रही। अगली पीढ़ी भी इसकी गिरफ्त में है।
बच्चों पर इस वायरस का सबसे बुरा असर पड़ा है। वे स्कूल नहीं जा पाए, सहपाठियों के साथ अच्छा समय बिताने से वंचित रह गए, न तो ठीक से पढ़ पाए और न ही जीवन का लुत्फ उठा पाए। यह कह देना पर्याप्त नहीं कि ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है, क्योंकि हम जानते हैं कि गरीब बच्चों को यह आसानी से उपलब्ध नहीं है। परिवार के साथ भले ही बच्चों को ज्यादा वक्त बिताने का मौका मिला हो, पर उनके मानसिक स्वास्थ्य और विकास पर गहरा असर पड़ा है। उनका जीवन ‘सामान्य’ नहीं रहा।
कोविड-19 ही नहीं, पिछले साल पक्षियों व मुर्गियों में एवियन इन्फ्लुएंजा, सूअरों में अफ्रीकी स्वाइन फ्लू फैला, चमगादड़ों से निपाह व मच्छरों से जीका वायरस फैला। क्या इनमें से कोई भी वायरस कोरोना जैसा जानलेवा साबित हुआ? हम नहीं जानते। इन अनिश्चितताओं के बावजूद हम समझने को तैयार नहीं कि हम प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण सामंजस्य स्थापित करने में नाकाम हो रहे हैं।
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पशुओं में होने वाले रोग इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि मानव प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहा है, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर रहा है। स्थितियां और न बिगड़े, बल्कि उनमें सुधार हो, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी खाद्य प्रणाली में बदलाव करें। पर समस्या यह है कि हम हर समस्या का त्वरित समाधान चाहते हैं। महामारी से मुकाबले के लिए जनस्वास्थ्य तंत्र में पर्याप्त निवेश जरूरी है, स्वास्थ्य कर्मियों की पर्याप्त संख्या जरूरी है, ताकि सभी की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी जरूरतें पूरी की जा सकें।

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