एक बात जिसने अमरीका को सभी महाशक्तियों से अलग बनाया है, वह उसकी गठबंधन बनाने और निभाने की अपूर्व क्षमता है। अमरीका में राष्ट्रपति के लिए हो रहे अहम चुनाव के बीच इन गठबंधनों के भविष्य पर चर्चा करना प्रासंगिक होगा क्योंकि दोनों प्रत्याशियों के दृष्टिकोण में इस मुद्दे पर सहमति नहीं है। रिपब्लिकन डॉनल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक कमला हैरिस अमरीका के सहयोगियों और भागीदारों का किस प्रकार नेतृत्व करते हैं या फिर उनसे अलग होने का फैसला लेते हैं, इसका व्यापक असर वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य पर दिखाई देगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका ने साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लक्ष्य के साथ अनेक सुरक्षा गठबंधनों की एक शृंखला स्थापित की। जहां यूरोप में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के माध्यम से सामूहिक रक्षा व्यवस्था बनाई गई, वहीं एशिया में अमरीका ने द्विपक्षीय गठबंधन प्रणाली स्थापित की, जिसमें फिलीपींस, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया और ताइवान को शामिल किया गया। अमरीकी गठबंधनों का यह शानदार नेटवर्क आज भी एशिया के सुरक्षा परिदृश्य की एक स्थायी विशेषता है।
जो बाइडन ने अपने कार्यकाल में अमरीकी गठबंधनों और साझेदारियों को मजबूती दी है। तेजी से हो रहे भू-राजनीतिक बदलावों के प्रत्युत्तर में अनेक नए या पुनर्जीवित मिनी-लेटरल (तीन से अधिक साझेदारों वाले समूह) नेटवर्क बनाए गए हैं जिससे अमरीकी गठबंधन व्यवस्था को मजबूती दी जा सके। गठबंधनों के नवीनीकरण में कई कारकों ने मदद की है जिनमें यूक्रेन पर रूस के हमले से यूरोप में असुरक्षा का भाव, समुद्री एवं भूमि विवादों पर चीन की मुखरता, रूस के साथ उत्तर कोरिया के प्रगाढ़ होते रिश्ते, पश्चिम एशिया में इजरायल और ईरान के बीच तनाव में वृद्धि तथा आर्थिक सुरक्षा के लिए बढ़ती चुनौतियां शामिल हैं। सुरक्षा परिदृश्य में बदलाव ने पुराने और नए अमरीकी भागीदारों को प्रेरित किया है कि वे सहयोग बढ़ाएं।
चीन की बढ़ती चुनौती ने नए मिनी-लेटरल जैसे ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अमरीका (ऑकस), अमरीका-जापान-दक्षिण कोरिया त्रिपक्षीय, भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया-अमरीका के बीच क्वाड साझेदारी ने मजबूत नेटवर्क के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। दक्षिण कोरिया और फिलीपींस में नए राजनीतिक नेतृत्व ने अमरीकी द्विपक्षीय संबंधों का समर्थन करते हुए गठबंधन नेटवर्क के भीतर सकारात्मक तालमेल बनाया है। उदाहरण के तौर पर, दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता का सामना करने में फिलीपींस पहले की तुलना में अब काफी मुखर है। डॉनल्ड ट्रंप के पिछले बयानों को ध्यान में रखते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अनेक अमरीकी सहयोगियों को गठबंधन और साझेदारियों के मुद्दे पर हैरिस प्रशासन की तुलना में ट्रंप प्रशासन में अधिक अनिश्चितता दिखाई पड़ती है। प्रथम ट्रंप प्रशासन के दौरान ताइवान के विषय पर की गई विरोधाभासी बयानबाजी पुन: दोहराई जा सकती है। ताइवान को अपने हाल पर छोडऩे का सबसे बड़ा लाभ चीन को होगा जो पूर्वी एशिया में अमरीकी गठबंधन प्रणाली को नष्ट होते देखना चाहता है। हालांकि ट्रंप जीते तो चीन को लेकर अमरीकी व्यापार नीति अधिक टकरावपूर्ण होगी। ट्रंप यूरोप के नाटो सहयोगियों पर फिर से दबाव डालने का प्रयास करेंगे कि वे रक्षा भार में अपने योगदान में इजाफा करें। ऐसा करने से कई यूरोपीय सहयोगी एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़े हो सकते हैं जिसका सीधा फायदा रूस को मिलेगा।
हैरिस को इजरायल में संदेह की नजर से देखा जाता है क्योंकि वह बाइडन की तुलना में इजरायल की अधिक आलोचक रही हैं। सउदी अरब, पश्चिम एशिया में अमरीका का एक अहम सहयोगी रहा है और बाइडन ने बहुत पहले ही प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ‘अछूत’ बनाने की नीति का परित्याग कर दिया था। पर प्रिंस सलमान के ट्रंप और खासकर उनके दामाद जेरेड कुशनर के साथ घनिष्ठ राजनयिक और व्यावसायिक संबंध रहे हैं। यही नहीं, ट्रंप द्वारा सत्ता की राजनीति का अनुसरण उन्हें बेंजामिन नेतन्याहू और मोहम्मद बिन सलमान के लिए पसंदीदा साझेदार बनाता है।
अमरीका की घरेलू राजनीति में गहराती उथल-पुथल और राजनीतिक ध्रुवीकरण से काफी हद तक अप्रभावित क्षेत्र है इंडो-पैसिफिक, जहां चीन के प्रति अगले प्रशासन के दृष्टिकोण में ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं है। हैरिस या ट्रंप के लिए अमरीकी भागीदारों से प्रबल समर्थन हासिल किए बगैर एशिया में सार्थक एवं प्रभावी अमरीकी रणनीति बनाना नामुमकिन है। हालांकि गठबंधनों की उपादेयता पर ट्रंप के अपमानजनक बयान चिंताजनक हो सकते हैं, पर अधिकांश रिपब्लिकन राजनेता चीन की चुनौती को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं। इसलिए इंडो-पैसिफिक में अमरीका की सैन्य उपस्थिति की जरूरत पर दोनों दलों में वैचारिक सहमति है। संभव है कि अगला राष्ट्रपति अपनी जनता के सम्मुख इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमरीकी हितों की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करेगा जिसमें गठबंधन और साझेदारी महत्त्वपूर्ण तत्व होंगे। लेकिन अगले प्रशासन को केवल अमरीकी एजेंडे को अपने क्षेत्रीय सहयोगियों पर थोपने की बजाय उनकी आवश्यकताओं को भी ध्यान से सुनना होगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्रंप की वापसी से व्यापार, कर, आव्रजन जैसे मामलों पर हर निर्णय अमरीकी श्रमिकों के लाभ के लिए किया जाएगा जिसका नकारात्मक असर अमरीका के गठबंधनों पर पड़ सकता है। हालांकि ट्रंप द्वारा ‘अमेरिका फस्र्ट’ का राग फिर से अलापने के बावजूद दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देश आज भी चीन की तुलना में अमरीका पर अधिक विश्वास करते हैं। इसी वजह से अनेक सहयोगी अमरीकी भागीदारी के किसी भी अच्छे अवसर को गंवाना नहीं चाहते। यदि हैरिस विजयी होती हैं तो उन्हें विदेशी प्रतिबद्धताओं के प्रति बाइडन की सकारात्मक नीतियों को जारी रखकर सहयोगियों में अमरीकी अविश्वसनीयता की आशंकाओं को दूर करना होगा।