आकाश की तरह सभी प्राणी शरीरों, पेड़-पौधों में और पृथ्वी पर भी तीन चौथाई जल है। विष्णु लोक के जल को आप: कहा है, सूर्य रश्मियों के जल को मरीचि, चन्द्रमा के जल को श्रद्धा तथा पृथ्वी के जल को मर: कहते हैं। जल दिव्य पदार्थ है, इसकी पूजा, इसका सम्मान पहली आवश्यकता है। इसी से जल की पवित्रता बनी रहती है और वह पदार्थों को पवित्र करने के काम आता है। सभी मंत्रोच्चारण, शान्ति पाठ जैसी निर्मल ध्वनियां जल के माध्यम से विश्व का वातावरण शान्त बनाए रखती हैं।
हमारा शरीर भी जल समुद्र है। हमारे हृदय में भी ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण ही कार्य करते हैं। हमारे चारों ओर की ध्वनियां इस जल को प्रभावित करती हैं, संग्रहित करती हैं। शास्त्रीय संगीत की तरंगें इस दृष्टि से श्रेष्ठ प्रमाणित हुई हैं। विभिन्न धातुओं से उत्पन्न संगीत नकारात्मक प्रभाव छोड़ता पाया गया है। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वस्तुएं-टीवी, मोबाइल फोन, माइक्रोवेव, कम्प्यूटर आदि सभी नकारात्मक प्रभाव वाले साधन हैं। असभ्य भाषा, कथाएं, टीवी दृश्य आदि, हल्का साहित्य, अनावश्यक ठिठोली, व्यंग्यात्मक शैली आदि सभी की तरंगें जल (रक्त) को रोगग्रस्त करती हैं। प्रार्थना जैसे विश्व शान्ति के भाव, प्रेम-समर्पण के भाव जल को शुद्ध करते हैं। यही भक्तिमार्ग का सूत्र है। हर प्राणी-वस्तु की एक ध्वनि तरंग होती है। आप शान्ति भेजते हैं, तो शान्ति लौटती है।
जापान में एक प्रथा है। मरणासन्न व्यक्ति के होठों को रुई के फाहे से गीला बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। व्यक्ति की प्रार्थना जल के माध्यम से ईश्वर तक पहुंच सके। व्यक्ति के चारों ओर प्रार्थना-सत्संग आदि से वातावरण को पवित्र रखते हैं।
जल तरंगों की प्रभावशीलता भोजन में, फलों में, शरीर के विभिन्न अंगों में, यहां तक कि अणु के सूक्ष्म अंशों पर भी दिखाई देती है। माइक्रोवेव ओवन, फ्रिज जैसी तीक्ष्ण गतियां जल तरंगों को नष्ट कर देती हैं। उनकी तरंगें आपके शरीर की तरंगों से कभी मेल नहीं खा सकतीं। खाना बनाने वाले की तरंगों का आपकी तरंगों से समायोजन उतना ही आवश्यक है। भोजन पूर्व आचमन, प्रार्थना इसी कमी को पूरा करते हैं। सार्वजनिक स्थलों-जलाशयों के पानी को शुद्ध करने के लिए भी सामूहिक प्रार्थनाएं की जाती हैं। तीर्थ स्थान में जल के उद्गम की तरंगें देता है।
जल सूचनाओं को संग्रह करता है। पीढिय़ां बदल जाती हैं, जल वही रहता है। अत: जल के द्वारा पृथ्वी के पुरातन इतिहास की खोज की जा रही है। जल कणों की आकृतियों (क्रिस्टल) के द्वारा जापानी वैज्ञानिक मासारु एमोतो के कार्य विश्व में प्रसिद्ध हैं। इनके अनुसार केवल प्राकृतिक जल ही शुद्ध होता है। शुद्ध किए हुए जल में तो क्रिस्टल बनते ही नहीं। हां, दृढ़ संकल्प से जल शुद्ध किया जा सकता है।
नाद ब्रह्म की पुष्टि जल की भूमिका के साथ स्पष्ट समझी जा सकती है। शब्द भी शरीर है। इसका भी आत्मा है। यदि हम आत्मिक धरातल से बोलते हैं, तो ये तरंगें विश्व की सभी आत्म-संस्थाओं को पहुंच जाती है। शब्द आत्मा को ही प्रकट करते हैं। हमारी स्वयं की भाव शुद्धि हो जाती है। विश्व शान्ति की प्रार्थनाओं की यही भूमिका है।
हम भी पृथ्वी पर जलकणों द्वारा तैयार क्रिस्टल ही हैं। पृथ्वी भी जलकणों से बनती है। जल प्रदूषण हमारे आत्मा का ही प्रदूषण है। अत: यह हमारा उत्तरदायित्व है कि मानवता और पृथ्वी के अस्तित्त्व को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जल का संरक्षण भी करें, इसे शुद्ध भी रखें और अनावश्यक प्रयोग भी रोकें।