मन-प्राण-वाक् तीनों आपस में एक-दूसरे के बगैर कभी नहीं रहते (अविनाभाव हैं)। अत: इन तीनों के कार्य ज्ञान-क्रिया-अर्थ भी मिले-जुले रहते हैं। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जिसमें मन की क्रिया न हो और कोई न कोई विषय उसमें न रहे। अंगुली हिलाने की क्रिया में मेरी इच्छा और अंगुली का सम्बन्ध है। यह इच्छा ज्ञान का भाग है। अंगुली में क्रिया हो रही है, अंगुली अर्थ का भाग है। घड़ा बनाने में कुम्हार की इच्छा और क्रिया जरूरी है। यह इच्छा मन है यानी ज्ञान है। क्रिया प्राण यानी गति है और घड़ा अर्थ यानी वाक् है। मन-प्राण-वाक् की सृष्टि में इच्छा और परिणाम ही धुरी बनते हैं। क्रिया निमित्त मात्र है जो कि इच्छा को रूपान्तरित करके इच्छित स्वरूप को प्रकट करती है।
मन को अनन्त या अपरिमित कहा है और वाक् को सीमित या परिमित। वाक् भी दो प्रकार की होती है। एक अर्थवाक्, दूसरी शब्द वाक्। पदार्थ तो आकृति में बंधा होने से सीमित ही होता है। शब्द भी ध्वनि की आकृति ही है। सीमित है। मन ध्वनि को प्रत्येक रूप और प्रत्येक धरातल पर सुन सकता है। मन असीम होने से देखने और सुनने का काम एक साथ भी कर लेता है। शतपथ ब्राह्मण में कण्व ऋषि की पालित पुत्री शकुन्तला तथा दुर्वासा ऋषि के प्रसंग से यह बात सिद्ध होती है कि इन्द्रियां बिना मन के अपने-अपने कार्यों को नहीं करती। द्वार पर खड़े दुर्वासा ऋषि की आवाज को शकुन्तला ने नहीं सुना। क्योंकि उसका मन दूसरी जगह, दुष्यन्त में लगा हुआ था। शीघ्र नाराज होने वाले ऋषि ने शकुन्तला को शाप दे दिया। सखियों ने पूछा कि तुमने उनकी आवाज को क्यों नहीं सुना? शकुन्तला का उत्तर था कि ‘मेरा मन अन्यत्र था इसलिए मैंने नहीं देखा, इसलिए मैंने नहीं सुना।’ मन ही देखता है। सुनता है।
‘अन्यत्रमना अभूवं नादर्शमन्यन्नमना अभूवं नाश्रोषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति।’ (शत.ब्रा. १४.४.३.८) प्राण हर पल क्रियाशील हैं। जगत् में जो कुछ क्रिया होती है, वह सब प्राणों का ही रूप है। प्राण एक स्थान से जब दूसरे स्थान में सम्बन्ध करता है तब उस वस्तु में कम्पन होता है। इसी को क्रिया कहते हैं। सभी क्रियाओं का आधार (उपादान) प्राण है। वाक् जगह रोकने वाली होती है। जहां वाक् है वह जब तक हटाई न जाए तब तक उस स्थान पर दूसरी वाक् नहीं बैठ सकती। यह एक रूप से दूसरे में बदलती है तब उसका पहला वाला रूप नहीं रह पाता। जैसे घास का दूध बनना। यह प्राण को ग्रहण करती-छोड़ती है। शरीर प्राण के आधार पर बनता-बनता बूढा हो जाता है। किन्तु वाक् उस प्राण को छोड़कर सड़-गल कर मिट्टी या राख बन जाती है। प्राण निकल जाना ही मर जाना है।
मन की क्रिया को इच्छा कहते हैं। प्राण की क्रिया को तप और वाक् की क्रिया को श्रम कहते हैं। हम जब कुछ इच्छा करते हैं तो उस इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए हमारे अन्दर कुछ यत्न होता है। यत्न होते ही हाथ, पांव आदि की शरीर में कुछ चेष्टा होने लग जाती है। कोई भी चेष्टा बिना यत्न के नहीं होती और यत्न बिना इच्छा के नहीं होता। इच्छा, मन का कर्म है। यत्न, शरीर के अन्दर प्राण का कर्म है। श्रम, शरीर के बाहरी अंगों का कर्म है। जब तक तीनों भाग पूरे न हों, तब तक किसी भी कर्म का रूप सिद्ध नहीं होता। हालांकि यह बात चेतन में ही देखने में आती है। जड़ पदार्थों में इच्छा और यत्न को हम प्रत्यक्ष रूप में नहीं देख पाते, किंतु उनमें भी क्रिया होती है। लोहे में जंग का लगना, पेड़-पौधे का कोयला बनना आदि इसके प्रमाण हैं। किसी पेड़ के पास उगी हुई लता उसका सहारा लेने की इच्छा से अपने शरीर को उधर झुकाती है। इसी क्रिया से हम उस लता में इच्छा और यत्न का अनुमान करते हैं।
जगत् में प्रत्येक वस्तु के स्वभाव के लिए तीन भाव नियत हैं-ब्रह्म, क्षत्र और विट्। इन तीनों भावों का सम्बन्ध इन्हीं तीनों सत्यों से समझना चाहिए। इनमें मन ब्रह्म है। प्राण क्षत्र है। वाक् विट् है। मन से ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञान से उत्पन्न होने वाली जितनी वृत्तियां हैं उनको ही ब्रह्म कहते हैं। प्राण अर्थात् बल से कर्म उत्पन्न होता है। अत: बल से सम्बन्ध रखने वाली जितनी वृत्तियां हैं उनको क्षत्र कहते हैं। वाक् से अर्थ उत्पन्न होता है। अर्थ-सम्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली वृत्तियों को विट् कहते हैं। मन और वाक् ये दोनों प्राण का ही आश्रय लेकर अपनी स्थिति पाते हैं। किन्तु प्राण स्वयं बिना मन के कोई भी कार्य नहीं करता। अंगुली का हिलाना मन की इच्छा के बिना प्राण नहीं करता। किसी वस्तु को हाथ से पकड़कर कोई मनुष्य सो गया, तब निद्रा से मन का व्यापार बन्द होते ही हाथ खुल जाता है और पकड़ी हुई चीज हाथ से गिर जाती है। यदि प्राण उस वस्तु को पकडऩे में स्वतन्त्र होता तो नींद में मन का काम बन्द होने पर भी प्राण का काम बन्द नहीं होने से वह ज्यों का त्यों पकड़े रहता।
यहां प्रश्न हो सकता है कि जब सोने में मन का काम बन्द हो गया तो प्राणों के काम अर्थात् श्वास का चलना, अन्न का पाचन आदि कैसे होते रहते हैं। इसका उत्तर है कि शरीर में पृथक्-पृथक् दो मन काम करते हैं। एक जीव का और दूसरा ईश्वर का। जीव के मन की प्रेरणा से होने वाले प्राण के सब कार्य निद्रावस्था में बन्द हो जाते हैं। किन्तु ईश्वर के मन की प्रेरणा से प्राण का कार्य नित्य रहता है। आकाश में बादलों का बनना, वायु का चलना-रुकना, जगत् के प्राणों के व्यापार, ईश्वर के मन की प्रेरणा से ही हैं। केवल मन ही ऐसा पदार्थ है जो जड़ न होने के कारण अकस्मात् बदला करता है। मन के उसी बदलाव को ‘इच्छा’ कहते हैं। जगत् में जो कुछ हम परिवर्तन देखते हैं ईश्वर के मन की इच्छा के कारण ही है। जितने प्राण जीवों की इच्छा के बिना काम करते हुए दिखते हैं वे सब ईश्वर के मन के अनुसार हैं। स्पष्ट है कि प्राण, मन की आज्ञा से ही अपना काम करता है अर्थात् ‘प्राण मन का आज्ञाकारी’ है।