सृष्टि में दो भाव सभी जगह विद्यमान हैं। ईश्वर भाव या अमृत सृष्टि तथा जीव भाव या मत्र्य सृष्टि। इसी को आत्मा और शरीर भी कहते हैं। ईश्वर तथा जीव ही द्वासुपर्णा-साक्षी एवं ‘भोक्ता’ कहलाते हैं। जिस प्रकार हमारा अस्तित्व दो भागों में बंटा है, ब्रह्माण्ड भी उसी प्रकार दो भागों में विभाजित है। इनको हम ब्रह्म का आत्मा और शरीर कह सकते हैं। सूर्य के ऊपर का भाग अमृत लोक, आत्मा का स्वरूप है। तात्त्विक रूप में सृष्टि महत् लोक से शुरू होती है। अत: जन:, तप:, सत्यम् तीन अमृत लोक तथा भू:, भुव:, स्व: तीन लोक मृत्यु लोक हैं।
ईश्वर का जो मन है उसे ही ‘महान्’ कहते हैं। महानात्मा ईश्वर की चित्त प्रकृति है। चित्त में जितने विचार या विकार उत्पन्न होते रहते हैं उनकी प्रकृति ही ‘मन’ है। जैसी जिसकी प्रकृति या स्वभाव होता है उसके मन में वैसी ही वृत्तियां उत्पन्न होती हैं।
जैसे कोई मनुष्य शान्त तथा कोई उग्र स्वभाव का होता है। प्रकृति के अनुसार ही प्राणी के शरीर की संस्था बनती है, जैसे हाथ से अन्न खाने की प्रकृति रखने वाले मनुष्य का होठ मुलायम होता है। किन्तु चबाने के लिए सख्त दांत होते हैं। जिसकी प्रकृति मुख से ही तोड़कर खाने की होती है, ऐसे पक्षियों के दांत की मात्रा होठ पर आकर सख्त चोंच में विकसित हो जाती है। तात्पर्य यह है कि जीव के शरीर का गठन उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार होता है। उसका आत्मा जिस प्रकार उठना, बैठना, खाना, पीना आदि अपनी प्रकृति के अनुसार चाहता है वैसे ही उसके शरीर के सब अंग प्रत्यंग बन जाते हैं। इसीलिए गीता में कहा है-
‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय:सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद:पिता ॥’ (गीता १४/४) आकृति-प्रकृति-अहंकृति मह:लोक में ही उत्पन्न हो जाते हैं। जीव की अहंकृति सूर्य से, प्रकृति चन्द्रमा से एवं आकृति पृथ्वी से तय होती है।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद:पिता ॥’ (गीता १४/४) आकृति-प्रकृति-अहंकृति मह:लोक में ही उत्पन्न हो जाते हैं। जीव की अहंकृति सूर्य से, प्रकृति चन्द्रमा से एवं आकृति पृथ्वी से तय होती है।
सभी प्राणियों में मानव ही चेतन सृष्टि है। मानव प्रजापति की प्रतिकृति है-‘पुरुषो वै प्रजापतिर्नेदिष्ठ:।’ शरीर में भूतात्मा (प्राणियों का आत्मा) प्रतिष्ठित रहता है। शरीर शुक्र और रज (शोणित) के संयोग से बनता है। शुक्र-शोणित (रज) दोनों आप् यानी जल प्रधान तत्त्व हैं। इसीलिए शरीर को आपोमय कहते हैं। वस्तुत: सम्पूर्ण विश्व का निर्माण अप् तत्त्व से ही होता है-‘सर्वं आपोमयं जगत्।’ अप् तत्त्व के अम्भ:, मर:, आप:, मरीचि, श्रद्धा आदि अनेक रूप हैं। अप् की इसी विविधता के कारण इससे उत्पन्न होने वाले लोकों के स्वरूप में भेद होता है। आप: वह अवस्था है जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति लीन थी, अव्यक्त थी। इसी स्थिति से गति का, प्रकाश का जन्म होता है। इसी में से पंचपर्वात्मक अथवा सप्तलोकात्मक चर-अचर रूप समस्त विश्व का जन्म हुआ।
वेद में सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था को सलिल समुद्र, आपोमय, परमेष्ठी, क्षीरसागर आदि कहा गया है। इस जल समुद्र में सृष्टि का मूल बीज अग्नि प्राण (ब्रह्म) मन्दीभूत अवस्था में था। यह अग्नि प्राण चारों ओर से जल से उसी प्रकार घिरा हुआ था जैसे गर्भ में शिशु। अत: प्रलय काल ब्रह्माण्ड की गर्भावस्था है। चारों ओर जल है। वहां विष्णु शेषशैय्या पर लेटे हैं। उनकी नाभि से ब्रह्मा और आगे की सृष्टि होती है। यह जल समुद्र ही क्षीरसागर है। ‘यथाण्डे तथा पिण्डे’ की अवधारणा सृष्टि के प्रत्येक अवयव पर पूर्णत: लागू होती है। चेतन, अद्र्धचेतन अथवा अचेतन-सभी के जीवन विकास का प्रथम हेतु जल ही है। बुद्बुद् (बुलबुला) से पृथ्वी, जलसेचन से फल तथा शुक्र व रज से मानव का निर्माण-सभी जगह जल की प्रधानता दिखाई देती है। एक तथ्य यह भी है कि इनके निर्माण क्रम की आठ ही प्रमुख अवस्थाएं होती हैं।
पृथ्वी के निर्माण में सबसे पहले जल व वायु के संयोग से बुलबुले का निर्माण होता है। बुलबुले के भीतर वायु का वेग होने से इसकी अवस्था यद्यपि क्षणिक मानी जाती है। किन्तु यह बुलबुला नष्ट होने से पहले ही इस पर अनेकानेक बलों की निरन्तर चितियां (एक के ऊपर एक चिनाई) होने लगती हैं। जिनसे यह बुलबुला स्थिर हो जाता है। चितियों की निरन्तरता से जल ही क्रमश: फेन (झाग), मृदा (मिट्टी), सिकता (चिकनी मिट्टी), शर्करा (बालू), अश्मा (कंकड़), अयस् (लोहा) तथा हिरण्य (स्वर्ण आदि) में बदलता है।
सृष्टि की वैज्ञानिकता का अन्य प्रमाण है-वृक्ष। वृक्ष से मिलने वाला फल भी आठ अवस्थाओं में प्राप्त होता है। वस्तु निर्माण का प्रधान कारक शुक्र (बीज) ही है। यह बाहर कठोर अर्थात् अग्नि रूप और भीतर सौम्य रहता है। बीज को वृक्ष बनने के लिए जमीन में गडऩा पड़ता है। बीज से फल बनने तक की आठ अवस्थाओं को बीज, अंकुर, नवोद्भिद्, पादप, वृक्ष, कली, पुष्प तथा फल में बांटा जा सकता है।
मानव निर्माण की भी आठ अवस्थाएं ही होती हैं। पंचाग्नि विद्या से प्राप्त बीज को धारण करने वाला पिता होता है। इस बीज रूप सोम की आहूति माता के रज में होने से संतति का निर्माण होता है। यहां रज व शुक्र दोनों के संयोग का हेतु वायु बनता है। यही वायु गर्भधारण के बाद गर्भस्थ शिशु का रक्षक होता है। गर्भस्थ शिशु में प्राण संचरण में सहयोगी यह वायु एवयामरुत् कहलाता है।
गर्भोपनिषद् में इन अवस्थाओं को आठ ही भागों में विभक्त किया गया है-कलिल, बुद्बुद्, पिण्ड, सिर, पैर, पेट व कमर, रीढ़, मुंह-नाक-कान। इन अवयवों से जीव संयुक्त होकर पूर्ण गर्भ बनता है। पुरुष के शुक्र व स्त्री के रज के मिलने से द्रवीभूत अवस्था कलिल कही जाती है। यही सृष्टि का निर्माणात्मक जल तत्त्व है। इस अवस्था में अग्नि, सोम व वायु के संयोग से बुलबुले का निर्माण ही शिशु के आने का प्रथम संकेत है। अग्निचितियों से बनने वाला यह गर्भस्थ शिशु एवयामरुत् के धक्के से ही गर्भ से बाहर आता है।
अनुगीता में भी कहा गया है कि जीव पहले पुरुष के वीर्य में प्रविष्ट होता है, फिर स्त्री के गर्भाशय में जाकर उसके रज में मिल जाता है। उसे कर्मानुसार शुभ या अशुभ शरीर की प्राप्ति होती है। जीव अपनी इच्छा के अनुसार उस शरीर में प्रवेश करके सूक्ष्म और अव्यक्त होने के कारण कहीं आसक्त नहीं होता है, क्योंकि वास्तव में वह सनातन परब्रह्म स्वरूप है। वह जीवात्मा गर्भ के समस्त अंग में प्रविष्ट हो उसके वक्ष:स्थल में स्थित होकर सभी अंगों का संचालन करता है। तभी वह गर्भ चेतना से सम्पन्न होता है। जैसे तपाये हुए लोहे का द्रव जैसे सांचे में ढाला जाता है उसी का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है। (अर्थात् जीव जिस प्रकार की योनि में प्रविष्ट होता है, उसी रूप में उसका शरीर बन जाता है।) जैसे आग लोहपिण्ड में प्रविष्ट होकर उसे बहुत तपा देती है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है और वह उसमें चेतना ला देता है। जिस प्रकार जलता हुआ दीपक समूचे घर में प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जीव की चैतन्य शक्ति शरीर के सब अवयवों को प्रकाशित करती है।
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