किसी भी देश की संस्कृति ‘मां’ है। मां सोए तो प्रलय हो जाती है। मां के जागरण से अभ्युदय और नि:श्रेयस् के मार्ग खुलते हैं। हमारी आज की शिक्षा अफीम का कार्य कर रही है। मां को सुला रही है। देश की संस्कृति तार-तार हो रही है। अभ्युदय का स्थान समृद्धि ने ले लिया है। जीवन से पवित्रता बाहर बह गई। न शरीर ही पवित्रता और सम्मान का विषय रहा, न ही कर्म। समाज व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है। वर्ण व्यवस्था का स्थान संकर संस्कृति लेती जा रही है। जब तक दिमाग की चलती है, बच्चे शादी नहीं करते। टालते रहते हैं। जब शरीर की मांग भारी पड़ जाए, तो विकल्प नहीं मिलते। जैसा चाहिए वैसा नहीं मिलता। जो मिल जाए, उसे ही चाहना पड़ता है। यह सच्चाई तो ओझल ही हो जाती है कि ‘मां’ शरीर में नहीं रहती।
शिक्षा में मन को दबाकर आगे बढ़ा जा सकता है। बुद्धि का रण है। अग्नि है-विखण्डन करती है। वहां मिठास नहीं तर्क है। जब व्यक्ति १५-२० वर्ष तक बुद्धि के भरोसे ही बड़ा होता है, तब मन और शरीर गौण होते जाते हैं। उम्र के परिवर्तन नकार दिए जाते हैं। जीवन में एक अदृश्य दबाव का वातावरण बना रहता है। बुद्धि का अहंकार रिश्तों को भी धकेलता जाता है। व्यक्ति स्वयं की मर्जी से, स्वच्छन्द जीने को उत्सुक रहता है। कॉलेज तक जाते-जाते उसका समाज बहुत छोटा हो जाता है। वहां भी चर्चाएं बौद्धिक स्तर पर ही होती हैं।
बुद्धि, दूसरे के मत को कम ही स्वीकारती है। इस उम्र तक परिपक्व भी हो जाती है, तो समझौता दूर बैठा प्रतीक्षा करता है-बुलावे का। सारा व्यवहार बुद्धि के स्तर पर होने से मन के द्वार बन्द ही रहते हैं। जरूरत भी नहीं पड़ती। रोबोट की तरह शुद्ध बात करते हैं-चले जाते हैं। मानव मन खो गया। स्त्रैण भी नींद में है और पौरुष भी। स्पष्ट दिखाई दे जाता है कि शिक्षा ने मानवता को अफीम देकर सुला दिया। उसके पास दो ही वस्तु बची हैं-एक शरीर और दूसरी बुद्धि। तोड़ता चलो रे!
नवसम्वत्सर पर शक्ति की आराधना करते हैं। क्यों? इस बार एक संकल्प करना चाहिए कि हर स्त्री के भीतर शक्ति का जागरण करेंगे। घर में स्त्री के लिए ‘शक्ति-शिक्षा’ का वातावरण बनाएंगे। शरीर से तो हम भी पशु हैं। आहार-निद्रा-भय-मैथुन शरीर का कुरुक्षेत्र है। हम शरीर नहीं हैं, पशु शरीर से जीता है। शरीर हमारा है, हम आत्मा हैं। शिक्षा ने लूट लिया हमको। आत्मा से ही हम मानव हैं। अन्य प्राणियों को इस तथ्य का ज्ञान नहीं होता। हम पैदा हुए तब तो मानव थे, स्वरूप का ज्ञान था। शिक्षा और तकनीक (टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन आदि) ने आत्मज्योति को ढक कर जीवन को अंधकार में धकेल दिया। शीत देशों के लोग भोगवाद के कारण चकाचौंध में जीते दिखाई पड़ रहे थे। हमने भी नकल शुरू कर दी। हमने उनके निजी जीवन को पास से नहीं देखा। धोखा खा गए।
मां शरीर नहीं है। विष्णु प्राण है। कृष्ण की तरह जीवन के महाभारत में सारथी बनकर शरीर में प्रवाहित रहती है। फल पिता से जुड़े रहते हैं। सृष्टि की मां परमेष्ठी ‘सोम लोक’ है। स्थूल सृष्टि की मां पृथ्वी है। प्रत्येक प्राणी की अपनी मां है। जब सम्पूर्ण सृष्टि में ब्रह्म पिता (ब्रह्म) एक ही है, तब मां दो कैसे हो सकती हैं! ब्रह्म-माया ही हमारे शरीर में प्रवाहित होकर ‘प्राण रूप’ नए ब्रह्म को जन्म देते हैं। शरीरधारी माता-पिता इस ब्रह्म को सृष्टि विकास का मार्ग देते हैं। शरीर ही रथ है।
मां के दो प्रमुख कार्य होते हैं। एक – सन्तान की आकृति का निर्माण करना, जीव के प्रवेश के बाद उसकी प्रकृति को स्वरूप देना। गर्भस्थ शिशु को संस्कार दे, भविष्य से परिचय करवाए, अभिमन्यु बने-ऐसा पुरुषार्थ और विश्वास भर दे। दूसरा कार्य है, सन्तान के विकास पर भी तथा पति के निर्माण पर भी नियंत्रण रखे। इसमें उसका शक्ति स्वरूप स्पष्ट होता है। प्रथम कार्य में माया का निर्माण भाग है। दूसरे में नियोजन है। सन्तान को भोजन के माध्यम से स्पन्दन प्रेषित करती है – ममता, वात्सल्य, स्नेह से सिंचन करती है। पति को अपने सपनों के अनुसार मूर्त रूप देती है – दाम्पत्य रति के माध्यम से। मां एक पूजा है, पुजारिन भी है।
मां माया है, शक्ति है, बल है। शिक्षा ने शरीर बना दिया। अबला बना दिया। नारी-शक्ति को प्राप्त करने के लिए उसे अभियान चलाने पड़ रहे हैं। क्योंकि उसने अपनी दिव्यता को विस्मृत कर दिया। भोग की वस्तु बन गई। शास्त्र, स्त्री को भोक्ता मानते हैं। उसके द्वारा निर्मित पुरुष उसी का भोक्ता बन बैठा। निर्माण में कोई बड़ी कमी छूट गई है! कन्या विद्यालय और महाविद्यालय/विश्वविद्यालयों में निर्माण की कलाएं सिखाई जानी चाहिए। वरना इनका औचित्य ही क्या रह जाएगा!
मां, आज कन्याओं को बेटा कहकर, समानता के नाम पर कुछ नहीं सिखाती। शिक्षालय स्त्रैण भाव को सुला चुके हैं। स्त्री शरीर में पुरुष ही बड़ा हो रहा है। इसी का विवाह किसी पुरुष से होगा। शादी भी बहुत देर से होती है। जब प्रजनन-तंत्र निष्क्रिय सा होने लग जाता है तब चिकित्सक की शरण लेनी पड़ती है। मानव के अतिरिक्त किसी प्राणी के सामने ऐसा संघर्ष नहीं आता होगा। जब इस प्रकृति के कार्यों में किसी को मासिक चैकअप कराना ही पड़ता हो। अब हमें भी पिण्ड के बढऩे की चिन्ता रह गई है। हृष्ट-पुष्ट होना चाहिए, बस। किस शरीर को छोड़कर आया, मां को पता नहीं पड़ता। दंपती के लिए सन्तान यज्ञ-पूजा, उपासना का क्रम न रहकर शारीरिक प्रक्रिया मात्र रह गई है। तब मां कौन बनेगी सन्तान की? मां नहीं रहेगी, तो सन्तान मानव के रूप में कैसे अवतरित होगी? मानव शरीर में पशु विचरण करने लगे हैं। दानव और दैत्य और तामसी सृष्टि विकसित होती जा रही है।
देश की सभ्यता और संस्कृति दोनों का आधार मां है। मां का आधार धरती मां है। रेगिस्तान का पशुपालक बालू रेत में ऊंट के खोज (पद चिह्न) पहचान लेता है। अन्य क्षेत्रों का नहीं पहचान सकता। ऊंट और पशुपालक वहीं के अन्न (धरती मां का) से बनते हैं। तब कहीं मां का शक्ति रूप समझ में आता है।
जीवन को लक्षित करना है। प्रकृति का सम्मान करना है। सम्पूर्ण अध्यात्म (शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा) को शिक्षित-प्रशिक्षित करना है। घर की सम्पूर्ण आय खर्च करके सन्तान को बेकारी में धकेलने से पहले चिन्तन जरूरी है। भेड़ चाल नहीं। जीवन के अन्त में सरकार के नारे झूठे निकलते हैं, योजनाएं हम तक पहुंचती ही नहीं। हमें छलावे में आने की आवश्यकता नहीं है। डिग्री ले लेना विकास नहीं है। हर व्यक्ति को इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसमें नौकरी की गारण्टी कहां है। इसके लिए शादी जैसे पवित्र और महत्त्वपूर्ण निर्णय को टालने की जरूरत नहीं है। वरना, रिटायर होने तक बच्चे पढ़ाई करते रहते हैं। जबकि तब तक पिता का कार्य संभाल लेना चाहिए।
शादी के बाद भी उच्च शिक्षा में प्रवेश कर सकते हैं। अच्छे जीवन के लिए शिक्षा लेते ही हैं। यदि शिक्षा के नाम पर जीवन अव्यवस्थित हो जाए तो भी नुकसान तो उम्रभर का हो जाता है। आज तलाक के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, प्रजनन के लिए अस्पतालों के चक्कर और खर्चों को उठाना पड़ता है, सारी कमाई का नशा उड़ जाता है। जीवन में चारों ओर कांटे नजर आते हैं। शिक्षा का सुख ‘ज्ञान शून्य’ दिखाई देने लग जाता है। कुछ भी जीवन के संघर्ष में काम नहीं आता। जीवन में स्वयं का बूता ही काम आता है। ये संस्कारों से बड़ा होता है। दूसरों के काम आने से बड़ा होता है। शिक्षा ने स्वार्थ में सबको लपेट लिया। शिक्षा के साथ अफीम के नशे में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भी झपकियां ले रहा है।
आज आवश्यकता मानव निर्माण की है। मिट्टी का शरीर मिट्टी के पीछे भाग रहा है। इससे बड़ा अज्ञान जीवन में क्या हो सकता है भला! देश का यदि निर्माण करना है तो पहले निर्मात्री का निर्माण करना होगा। कुम्हार के अलावा न कोई घड़ा बना सकता है, न ही पका सकता है। हमने अध्यात्म का मार्ग त्यागकर भौतिकवाद-उपभोक्तावाद की नकल की और स्वयं भी भोग्य सामग्री बन बैठे। नवसम्वत्सर पर शक्ति की आराधना करते हैं। क्यों? इस बार एक संकल्प करना चाहिए कि हर स्त्री के भीतर शक्ति का जागरण करेंगे। घर में स्त्री के लिए ‘शक्ति-शिक्षा’ का वातावरण बनाएंगे। एक पीढ़ी के बाद नया समाज जन्म लेगा। ऐसी प्रभु से प्रार्थना भी करेंगे।