हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच ही कर्मेन्द्रियां हैं। इनका संचालन मन के द्वारा किया जाता है। मन को इन्द्रिय का राजा कहा है। शरीर रूपी रथ में इन्द्रिय को घोड़ा और मन को सारथी भी कहा जाता है। यह भी स्वयं में एक तंत्र है। इस तंत्र में निर्णायक भूमिका बुद्धि की होती है। श्रेष्ठ बुद्धि का एक स्तर है-विवेक तथा दूसरा स्तर है-प्रज्ञा। ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। प्रज्ञा सूक्ष्म शरीर में रमण करती है।
ज्ञानेन्द्रिय मन से जुड़े हुए हैं तथा कर्मेन्द्रिय को आदेश बुद्धि के जरिए आता है। एक इन्द्रिय दूसरे इन्द्रिय से किसी भी रूप में समान नहीं होता है। एक के कार्य की दूसरे इन्द्रिय को जानकारी भी नहीं होती। फिर भी हमको लगता है कि हम समस्त इन्द्रिय के कार्य एक साथ करते रहते हैं।
‘शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥’ (गीता 15/8)
वायु, गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे मन सहित इन्द्रिय को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें ले जाता है।
‘श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥’ (गीता 15/9)
यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु, त्वचा, रसना, घ्राण तथा मन को आश्रय करके ही विषयों का सेवन करता है। विषय शब्द में मूल शब्द है-विष। विषयों को विष कहते हैं। जो इन पर विजय प्राप्त कर ले, वही नीलकण्ठ है, वही शिव है।
वैश्वानर अग्नि की पांच इन्द्रिय, मन और बुद्धि-सात जिह्वाएं हैं। गंध, रूप, रस, स्पर्श, शब्द, मन और समझने के विषय-ये सात समिधाएं हैं। सूंघने वाला, खाने वाला (भोक्ता)-सात ऋत्विज हैं। सातों विषयों से ऊपर बुद्धि है। पंच महाभूत-मन, बुद्धि-सात योनियां हैं। इनके गुण हविष्य हैं। जो बुद्धि में प्रवेश करते हैं। अन्त:करण में संस्कार रूप रहकर अपनी योनियों में जन्मते हैं। इन्हीं का सात प्रकार का जन्म माना गया है। पांच इन्द्रिय-मन-बुद्धि-सात होता अलग-अलग रहते हैं। सभी सूक्ष्म शरीर में निवास करते हैं-किन्तु एक-दूसरे को नहीं देखते।
देखने का अर्थ है जानना। गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। एक इन्द्रिय अपने एक ही विषय को जान पाती है। कोई इन्द्रिय न मन का कार्य कर सकती, न ही बुद्धि का। निश्चयात्मक ज्ञान केवल बुद्धि का होता है।
योगी के स्वरूप को उद्घाटित कर कृष्ण कह रहे हैं कि-
‘नैव किञ्चत्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥’ (गीता 5/8)
‘प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥’ (गीता 5/9)
अर्थात् देखता, सुनता, छूता, सूंघता, भोजन करता हुआ, चलता, सोता, श्वास लेता, बोलता हुआ, त्यागता-ग्रहण करता हुआ, आंखों को खोलता-मंूदता हुआ तत्त्व को जानने वाला योगी-(सब इन्द्रिय अपने-अपने अर्थों में कार्यरत हैं) इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं। वही योगी श्रेष्ठ है।
ये सारे कार्य इच्छा के बिना नहीं होते। इच्छा मन में होती है। मन चंचल है। प्रवाह में बह जाता है। प्रवाह ही राग-द्वेष का मूल कारण है। मन को अच्छा-बुरा लगता है, आवश्यक-अनावश्यक का भेद नहीं करता। कर्म से पूर्व मन पर विषय आते हैं। मन विचार करता है, फिर इच्छा को स्वीकारता अथवा नकारता है। यह क्रिया अवग्रह-ईहा-अवगम कही गई है। मन की स्वीकृति के बाद बुद्धि निर्णय करती है कि मन की इच्छा पूर्ण होनी चाहिए या नहीं। अभी होनी चाहिए, कि बाद में।
ये सभी इन्द्रिय मन में विषयों के प्रति कामना पैदा करती हैं। मोह रूप पुनरावृत्ति की कामना भी पैदा करती हैं। इनमें कुछ कामनाएं तो पूर्व-कर्मों से बने संस्कारों की होती हैं। इनको रोक पाना सहज नहीं है। कई बार तो व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि उससे क्या हो गया और हो जाता है। कुछ कर्म कामनाओं (जीव की) द्वारा किए जाते हैं अथवा चेष्टा की जाती है। पूरी हो अथवा न हो, यह दूसरी बात है।
यहां दो प्रकार के मन कार्य करते हैं। एक है-इन्द्रिय मन-जो इन्द्रिय को विषयों से जोड़ता है। दूसरा है सर्वेन्द्रिय मन-जहां इन्द्रिय विषय को लेकर आता है। इन्द्रिय मन जिस इन्द्रिय से जुड़ता है, वही इन्द्रिय कार्य करता है। मन के जुड़े बिना कोई इन्द्रिय कार्य नहीं करता। आप आंख खोलकर बैठ जाएं तो दिखाई देना आवश्यक नहीं है। विषय आंखों पर पड़ते रहेंगे, किन्तु मन तक नहीं पहुंचेंगे। आप खाना खा रहे हैं और मन में कुछ अन्य विचार चल रहे हैं तो आप खाने का रसास्वादन नहीं कर पाएंगे। जिस मन को स्वाद आता है, वह रसना के साथ है ही नहीं।
इन्द्रिय उपकरण हैं मन का। इनका उपयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए। इन्द्रिय के कारण ही मन विषयों के जाल में उलझता चला जाता है। मन की स्वयं की भी प्रकृति (सत्व-रज-तम) होती है। उसी प्रकार के विषय मन को अच्छे लगते हैं। मन बार-बार उसी प्रकार के विषयों के पीछे भागता है। बुद्धि की भी अपनी प्रकृति होती है। अन्न की भी प्रकृति होती है। वैसा ही मन बनता जाता है। वैसी ही यज्ञ-दान-तप आदि क्रियाएं हो जाती हैं।
मन की गति बहुत तेज है। बुद्धि की गति मन से तेज है। अत: मन और बुद्धि के बीच जो आदान-प्रदान होता है, उसका हमें कोई भान ही नहीं होता। हां, शरीर को कर्म करने में समय लगता है। इस बीच इन्द्रिय और मन के बीच गतिविधियां चलती रहती हैं। अत्यन्त गतिमान क्रियाएं हैं। इन दोनों में जो बड़ा भेद है वह इनके स्वभाव का है। मन चन्द्रमा से तथा बुद्धि सूर्य से संचालित रहती है। मन शीतल है। स्नेह युक्त होने से बांधता है। बुद्धि उष्ण होने से तोड़ती है।
मन एक साथ सभी इन्द्रिय के साथ कार्य नहीं कर सकता। एकाग्रता चाहिए। पुरुषों की तुलना में स्त्रियां एक साथ अधिक प्रकार के कार्य कर लेती हैं। जो इन्द्रिय कार्यशील नहीं होता, उनकी क्रियाएं शान्त रहती हैं, किन्तु वे उपकरण की तरह खुले तो रहते हैं। बीच-बीच में मन को आकर्षित करके ध्यान बंटाती रहती हैं। इस कारण चल रहे कर्म की गुणवत्ता में व्यवधान आता रहता है। जब हम घर या कार्यालय में होते हैं, तब हमारा वाहन बाहर पार्क रहता है। तब निश्चेष्ट इन्द्रिय की पार्किंग व्यवस्था क्यों नहीं?
जब तक कान के साथ मन नहीं जुड़ेगा, हमें कुछ भी सुनाई नहीं देगा। सुनने वाला कान नहीं है, मन है। मन कहीं और है, तब कितनी भी प्रकार की ध्वनियां क्यों न हों, सुनाई नहीं देती। तब कान को भीतर सिमट नहीं जाना चाहिए? मन कभी इधर से गुजरेगा नहीं। जिस प्रकार बिना भूख भी हम सामने रखी चीज को खा लेते हैं, उसी प्रकार सभी इन्द्रिय स्वच्छन्द रूप से अनावश्यक क्रियाएं करती रहती हैं। मन आवश्यक कार्य में पूर्ण ‘मनोयोग’ प्राप्त नहीं कर सकता।
प्रश्न आता है कि इन्द्रिय को वश में किया जाए अथवा मन को। यहां योगी के लिए निर्देश है कि समस्त इन्द्रिय को संयम रूपी अग्नि में आहूत कर दें और समस्त विषयों को इन्द्रिय में आहूत कर दें। प्राण एवं इन्द्रिय की क्रियाओं को भी संयम रूप अग्नि में आहूत कर दें।
‘श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥’ (गीता 4/26)
इसका अर्थ है-बाहर के विषयों के प्रति आसक्ति का छूट जाना। तब सामने कोई सा भी विषय रहे, इन्द्रिय विरक्त रहेंगे। तब आप इच्छित विषयों का चिन्तन कर सकते हैं। कार्य भी ‘मनोयोग’ से होगा। शेष इन्द्रिय पार्किंग में प्रतीक्षा करेंगे।
आत्मा मन-प्राण-वाक् रूप है। मन में इच्छा उठती है, प्राण क्रिया करते हैं, इच्छित परिणाम प्राप्त होते हैं। प्राण मन का अनुसरण करते हैं। इच्छा है तो क्रिया है। कर्म तो हर क्षण करना पड़ता है। किसी भी विषय की पुनरावृत्ति ही चंचलता है। कृष्ण कहते हैं-पहले इन्द्रिय को वश में करके कामनाओं पर विजय प्राप्त कर। अभ्यास ही इसका एकमात्र मार्ग है।
‘असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥’ (गीता 6/35)
जो तपस्या के द्वारा इन्द्रिय-समूह को अपने वश में करके-अनासक्त भाव से विचरता है, वह मुक्त ही है। इन्द्रिय को विषयों की ओर से हटाकर मन में और मन को आत्मा में स्थित करे। जो मन को वश में करने वाला तथा जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित होकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है।
मन, अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। अभ्यास में समर्थ नहीं है तो मेरे लिए ही कर्म कर। अन्तिम प्रयास रूप में ‘मा फलेषु कदाचन।’ ये सारे प्रयास केवल इन्द्रिय को वश में रखने, मन को स्थिर रखने के लिए है। स्थिर हो जाना ही इन्द्रिय की पार्किंग है। जिसका कर्म नहीं, वह शान्त रहे। दूसरे अर्थों में मन और इन्द्रिय सभी भीतर शान्त रहें, केवल जिसको कार्य करना है, वही इन्द्रिय और मन युक्त होकर कर्म का निष्पादन करें और पुन: भीतर लौट जाएं।