अन्न और मन का सम्बन्ध आज विज्ञान के समक्ष वैसा नहीं है जैसा हमारे ग्रन्थों में निहित है। शरीर, मन, बुद्धि तीनों को तीन-तीन श्रेणियों में बांटा गया है-सत्व, रज और तम। शरीर में वात, पित्त, कफ भी इन्हीं का विस्तार है। जैसे विचार होते हैं वैसी ही इच्छा हमारे मन में उठती है। इच्छा अनुरूप ही अन्न का उपभोग करते हैं। यहां अन्न का अर्थ मात्र भोज्य पदार्थ नहीं है, अपितु इन्द्रियों के विषयों को अन्न कहा जाता है। मन, बुद्धि, शरीर, आत्मा, सबका अन्न अलग-अलग होता है।
अन्न के प्रसंग में श्रुति है-‘सर्वमिदमन्नाद: सर्वमिदमन्नम्।’ अन्नाद का अर्थ है ग्रहण करने वाला, खाने वाला। इस श्रुति का अर्थ है कि सब अन्न हैं और सभी अन्नाद हैं। जिसका जिससे निर्वाह होता है वही उसका अन्न है जैसे आकाश का अन्न शब्द है।
अन्न से सृष्टि होती है। अन्न को सोम भी कहते हैं। सोम सदैव अग्नि से जुड़कर यज्ञ का निमित्त बनता है। इसी यज्ञ से नया निर्माण भी होता है। गीता में भी कहा गया है कि-अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं। पर्जन्य अर्थात् वृष्टि से अन्न पैदा होता है। पर्जन्य के बनने में यज्ञ सहायक हैं। यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होते हैं-
‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।।’ (गीता 3/14) जिस प्रकार औषधि को कूटकर उसका रस निकाला जाता है, रस का सार खींचा जाता है, उसी प्रकार भुक्त अन्न से रस, असृक्, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र इन सात धातुओं का निर्माण होता है। इनमें अन्तिम शुक्र धातु का रसभाग ओज कहा जाता है। ओज को वेद विज्ञान में ऊर्क् कहते है। इस ओज का रसभाग मन बनता है। प्रत्येक धातु के दो भाग होते हैं-रस और मल। मल भाग अपशिष्ट होता है। वह कफ, मल, मूत्र आदि के रूप में शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। तथा रसभाग से अगली धातु का निर्माण होता है।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।।’ (गीता 3/14) जिस प्रकार औषधि को कूटकर उसका रस निकाला जाता है, रस का सार खींचा जाता है, उसी प्रकार भुक्त अन्न से रस, असृक्, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र इन सात धातुओं का निर्माण होता है। इनमें अन्तिम शुक्र धातु का रसभाग ओज कहा जाता है। ओज को वेद विज्ञान में ऊर्क् कहते है। इस ओज का रसभाग मन बनता है। प्रत्येक धातु के दो भाग होते हैं-रस और मल। मल भाग अपशिष्ट होता है। वह कफ, मल, मूत्र आदि के रूप में शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। तथा रसभाग से अगली धातु का निर्माण होता है।
अन्न रूप सोम को जब हम खाते हैं, तो अन्न का सारभाग पहला धातु रस बनता है। मल (विष्ठा) व मूत्र के रूप में इसका अपशिष्ट शरीर से बाहर निकलता है। रस का रसभाग तो असृक् (रक्त) बन जाता है और मल के रूप में कफ बनता है। रक्त धातु का रसभाग मांस धातु बनता है और मल के रूप में पित्त बनता है। मांस का रसभाग मेद बनता है। इससे नाक और कान का मल बन जाता है जिसे ‘खं मल’ कहते हैं। मेद का रसभाग अस्थि बनता है और मल के रूप में स्वेद यानी पसीना बनता है। अस्थि के रसभाग से मज्जा बनता है। केश-लोम और नाखून अस्थि के मल होते हैं। मज्जा के रस के रूप में वीर्य बनता है। आंख का और त्वचा का कीचड़ मज्जा के मल बनते हैं। सातवीं धातु के रूप में वीर्य जो बना उसी से ओज बनता है और इसके मल रूप में युवान पिटिका यानी मुंहासे-पिम्पल आदि बनते हैं। इन धातुओं की कमी होने या इनमें बढ़ोतरी होने पर शरीर में इनसे सम्बन्धित रोग हो जाते हैं।
ये सातों पृथ्वी की धातुएं हैं। शरीर में सातों धातु एक-दूसरे के ऊपर चिने हुए हैं। सबसे ऊपर चर्म है। चर्म के भीतर रस है। रस के भीतर असृक् है। असृक् के भीतर मांस है। मांस के भीतर मेद, उसके भीतर अस्थि है। अस्थि के भीतर मज्जा है। मज्जा के भीतर शुक्र है। इन धातुओं की इस ‘चिति’ (चिनाई) को ‘भूतचिति’ कहते हैं। इनमें सातवां ‘शुक्र’ अन्तिम धातु है, यही अन्नगत सोम है। किन्तु यह शुद्ध सोम नहीं है। इसमें अभी पार्थिव रस एवं आन्तरिक्ष्य रस और मिला हुआ है। पृथ्वी ‘वाक्’ कहलाती है अतएव इन सातों का समूह (समष्टि) ‘वाक्’ है। अन्न के निर्माण में पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यौ तीनों लोकों के क्रमश: घन, तरल और विरल द्रव्यों का योग होता है। वर्षा के माध्यम से अन्तरिक्ष और द्यौ लोक के तत्त्व भी पृथ्वी पर उत्पादित अन्न में समाहित रहते हैं। शुक्र धातु से जब पार्थिव रस निकल जाता है, तो केवल आन्तरिक्ष्य और दिव्य रस शेष बच जाता है। शुक्र की इसी अवस्था को ‘ओज’ कहते हैं। ओज अन्तरिक्ष की वस्तु है। अन्तरिक्ष का गतिशील वायु पृथ्वी के आकर्षण से मुक्त रहता है। यही ओज बनता है। इसलिए जिस मनुष्य में ओज की मात्रा जितनी अधिक होती है, उसका शरीर उतना ही अधिक हल्का रहता है। जिसमें ओज की मात्रा जितनी कम होती है, वह उतना ही अधिक शिथिल और अल्पप्राण रहता है। ओजस्वी के मुख पर दिव्य कान्ति बनी रहती है। अन्तरिक्ष में व्याप्त वायु को ही प्राण कहते हैं। इस ओज को भी प्राण कहते हैं। इसमें से जब आन्तरिक्ष्य रस निकल जाता है, तो शुद्ध सोम रह जाता है। दिव्य लोक में रहने वाला वही सोम संचरक्रम (सूक्ष्म से स्थूल बनने की सृष्टि प्रक्रिया) से अन्न बन जाता है। प्रतिसंचरक्रम (स्थूल से सूक्ष्म बनने का क्रम) से वही सोम रसादि रूप में होता हुआ अपनी शुद्ध अवस्था में परिणत हो जाता है। इसी शुद्ध सोम का नाम ‘मन’ है। अत: मन को अन्नमय कहा जाता है-‘अन्नमयं हि सौम्य! मन:।’
अग्नि सोम रूप इस यज्ञ से अन्न में दधि-मधु-घृत व अमृत ये चार प्रकार के रस विकसित हो जाते हैं। गेहूं के उदाहरण से इस बात को समझ सकते हैं। जब तक गेहूं का दाना पकता नहीं है या यूं कहें कि उसमें जब तक जीव नहीं पड़ता तब तक वह खाने योग्य नहीं माना जाता। यह कच्चा गेहूं दूधिया कहलाता है। खेत में फसल पकने से गेहूं में दही के गुण आने पर यह अन्न बनता है। गेहूं से निर्मित आटे के कणात्मक घन भाग से मानव के मांस, अस्थि आदि का पोषण होता है। आटे को पानी या द्रव्य से गूंथने पर उसमें जो स्नेहन भाव, लोच आ जाता है, यही गेहूं का घृत भाग है। दधि भाग पार्थिव तथा घृत भाग आन्तरिक्ष्य द्रव्य है। इससे मानव के रस-असृक्-मज्जा आदि तरल पदार्थों का पोषण होता है। अन्न में रहने वाली मिठास मधु है। इस सौर दिव्य रस से मानव के शुक्र का पोषण होता है। अन्न का शिवतम रस अमृत कहलाता है। यह परमेष्ठी लोक से आता है। इसी को साधारण भाषा में ‘स्वाद’ कहते हैं। इसी स्वादिष्ट अन्न से मानव के मन का पोषण होता है।
‘अग्निर्जागार तमृच: कामयन्ते अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:’ (ऋक्संहिता ५/४४/१५) जब हम दही को मथते हैं तो उसका सूक्ष्म भाग नवनीत के रूप में ऊपर आ जाता है। वही दही का सार होता है। उसी से घृत बनता है। उसी प्रकार खाए हुए अन्न का जो सूक्ष्मतम भाग है वह मथानी की भांति जठराग्नि* द्वारा मथे जाने पर सार रूप में ऊपर आ जाता है। वही मन होता है। अत: अन्न का सार मन है। खाए हुए अन्न से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसी से मन में शक्ति का संचार होता है। गीता में आहर और विहार के कर्मों में सन्तुलन की बात कृष्ण कर रहे हैं कि-दु:खों का नाश करने वाला यह योग तो परिमित भोजन और विहार करने वाले का ही सिद्ध होता है-
अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:’ (ऋक्संहिता ५/४४/१५) जब हम दही को मथते हैं तो उसका सूक्ष्म भाग नवनीत के रूप में ऊपर आ जाता है। वही दही का सार होता है। उसी से घृत बनता है। उसी प्रकार खाए हुए अन्न का जो सूक्ष्मतम भाग है वह मथानी की भांति जठराग्नि* द्वारा मथे जाने पर सार रूप में ऊपर आ जाता है। वही मन होता है। अत: अन्न का सार मन है। खाए हुए अन्न से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसी से मन में शक्ति का संचार होता है। गीता में आहर और विहार के कर्मों में सन्तुलन की बात कृष्ण कर रहे हैं कि-दु:खों का नाश करने वाला यह योग तो परिमित भोजन और विहार करने वाले का ही सिद्ध होता है-
‘युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा’ (गीता ६/१७) मन और शरीर के पोषण में अन्न की ही भूमिका रहती है। मन की अन्नमयता को उद्दालक पुत्र श्वेतकेतु ने प्रत्यक्ष अनुभव किया। उद्दालक ने पुत्र से कहा-‘वत्स! तुम पन्द्रह दिन तक अन्न ग्रहण मत करो।’ उसने अन्न नहीं खाया। तब सोलहवें दिन ऋक् आदि मंत्रों का पाठ करने के लिए कहा। श्वेतकेतु ने पाठ आरम्भ किया। परन्तु आश्चर्य, उसे पाठ याद ही नहीं हो रहा था। उसके मन में ऋकदि की प्रतीति नहीं हो रही थी। वह जो भी पाठ पढ़ता उसे वह समझ में नहीं आ रहा था। वह पिता के पास आया। तब पिता ने उसे समझाया कि जैसे अग्नि का अंगारा जब जुगनू के समान शेष रह जाता है तो उसमें जलाने की सामथ्र्य नहीं रहती। तुमने भी पन्द्रह दिन भोजन नहीं किया इसलिए तुम्हारी पन्द्रह कलाएं नष्ट हो गईं। केवल १६ वीं कला जो ‘धु्रवा कला’ (धारण करने की शक्ति) कहलाती है वह शेष रही है। इसलिए तुम में जानने की शक्ति नहीं रही। जैसे जुगनू के समान चमकते हुए उस अंगारे को यदि ईंधन से पुन: प्रज्वलित कर दिया जाए तो उसमें फिर से जलाने की शक्ति आ जाती है। वैसे ही अंगारे के समान शेष अपनी ध्रुवा कला को अन्न के द्वारा पुन: पुष्ट करो। श्वेतकेतु ने पिता की आज्ञा मान पुन: अन्न ग्रहण किया। अन्न ग्रहण कर नवशक्ति से, यानी कि ऊर्जा सम्पन्न हो वह लौटा। तब उससे पिता ने जो भी प्रश्न किए उन सबका उत्तर देने में वह समर्थ रहा। मन को अन्न द्वारा पुष्ट करने पर ही वेदार्थ का ज्ञान संभव हुआ। तब श्वेतकेतु ने अनुभव से जाना कि मन अन्नमय है। अन्न से निर्मित होने के कारण ही कहावत है-जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा’ (गीता ६/१७) मन और शरीर के पोषण में अन्न की ही भूमिका रहती है। मन की अन्नमयता को उद्दालक पुत्र श्वेतकेतु ने प्रत्यक्ष अनुभव किया। उद्दालक ने पुत्र से कहा-‘वत्स! तुम पन्द्रह दिन तक अन्न ग्रहण मत करो।’ उसने अन्न नहीं खाया। तब सोलहवें दिन ऋक् आदि मंत्रों का पाठ करने के लिए कहा। श्वेतकेतु ने पाठ आरम्भ किया। परन्तु आश्चर्य, उसे पाठ याद ही नहीं हो रहा था। उसके मन में ऋकदि की प्रतीति नहीं हो रही थी। वह जो भी पाठ पढ़ता उसे वह समझ में नहीं आ रहा था। वह पिता के पास आया। तब पिता ने उसे समझाया कि जैसे अग्नि का अंगारा जब जुगनू के समान शेष रह जाता है तो उसमें जलाने की सामथ्र्य नहीं रहती। तुमने भी पन्द्रह दिन भोजन नहीं किया इसलिए तुम्हारी पन्द्रह कलाएं नष्ट हो गईं। केवल १६ वीं कला जो ‘धु्रवा कला’ (धारण करने की शक्ति) कहलाती है वह शेष रही है। इसलिए तुम में जानने की शक्ति नहीं रही। जैसे जुगनू के समान चमकते हुए उस अंगारे को यदि ईंधन से पुन: प्रज्वलित कर दिया जाए तो उसमें फिर से जलाने की शक्ति आ जाती है। वैसे ही अंगारे के समान शेष अपनी ध्रुवा कला को अन्न के द्वारा पुन: पुष्ट करो। श्वेतकेतु ने पिता की आज्ञा मान पुन: अन्न ग्रहण किया। अन्न ग्रहण कर नवशक्ति से, यानी कि ऊर्जा सम्पन्न हो वह लौटा। तब उससे पिता ने जो भी प्रश्न किए उन सबका उत्तर देने में वह समर्थ रहा। मन को अन्न द्वारा पुष्ट करने पर ही वेदार्थ का ज्ञान संभव हुआ। तब श्वेतकेतु ने अनुभव से जाना कि मन अन्नमय है। अन्न से निर्मित होने के कारण ही कहावत है-जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।