पुरुष और प्रकृति मिलकर सृष्टि नहीं चलाते। पुरुष और माया, शक्तिमान और शक्ति, मिलकर सृष्टि का नियमन करते हैं। शक्ति के अनेक धरातल हैं। प्रकृति और आकृति के भी अनेक स्वरूप हैं। पत्नी पुरुष की प्रकृति नहीं बन सकती, शक्ति बनती है। पत्नी स्वयं भी भीतर पुरुष है। उसकी भी अपनी प्रकृति होती है। प्रकृति स्वतंत्र रहती है। इसका आधार पूर्व कर्म और दैव योग होते हैं। माया सत्ता रूप अधिकारिणी की तरह कार्य करती है। विष्णु माया कभी शिव माया का कार्य नहीं करेगी। जबकि प्रकृति समान होना असंभव नहीं है।
हमारे यहां नवरात्रा में दुर्गा पूजन की परम्परा है। दुर्गा को प्रकृति रूप कहा जाता है। सत्व, रज, तम का सम्मिलित स्वरूप ही प्रकृति है-‘सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।’ यह व्यक्ति अथवा ब्रह्म की प्रकृति कहलाती है। व्यक्ति की सभी क्रियाओं पर इसका प्रभाव रहता है। यहां तक कि यज्ञ-दान-तप जैसे कार्यों का स्वरूप भी प्रकृति ही तय करती है। शरीर-मन-बुद्धि भी त्रिगुण से आवरित रहते हैं। प्रकृति सम्पूर्ण सृष्टि को इन स्वरूपों में समेटकर ब्रह्म को आवरित रखती है। गीता में कृष्ण कहते हैं-
‘मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।’ (गीता ९/१०) मेरी प्रकृति ही मेरे कर्म भाव को प्रवृत्त रखती है। यह जगत् मेरे स्वरूप का ही आवरण है। कृष्ण इसका भी प्रमाण दे रहे हैं कि- ‘चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:’ (गीता ४/१३)
चारों वर्ण और तीनों गुण मैंने ही रचे हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या ये सिद्धान्त प्रकृति के सभी प्राणियों पर लागू होते हैं? क्या यह प्रकृति सातों लोकों की सृष्टि को प्रभावित करती है? प्रकृति ही हमारे जीवन को संचालित करती है। स्वभाव को ही प्रकृति कहा जाता है। जिसे बदल पाना मनुष्य के लिए कठिन होता है। प्रकृति ही ब्रह्मवीर्य के कारण व्यक्ति को ज्ञान से जोड़ती है, विद्याभ्यास में लगाती है। क्षत्रिय को शासन और रक्षा का भाव देती है। वैश्य को संग्रहण और वितरण का ज्ञान प्रदान करती है। जिनमें इन तीनों वीर्यों की अल्पता होती है, वे कला-कौशल से जुड़े होते हैं। अंधकार ही प्रकाश का विरोधी तत्त्व है। इसी अंधकार के आवरण में व्यक्ति पूरी उम्र जीता है। अज्ञान रूपी-अविद्या, अस्मिता, आसक्ति तथा अभिनिवेश के आवरण धर्म-ज्ञान-वैराग्य तथा ऐश्वर्य के प्रकाश को ढक लेते हैं।
व्यक्ति के जीवन में शक्ति के अनेक रूप हैं। शरीर की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, मन की शक्ति, प्राणों की शक्ति, पोषण और संहार की शक्ति, आवेग और आवेश की शक्ति, सहयोग की शक्ति आदि। जिस प्रकार व्यक्ति के बाहरी रूप दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही शक्ति के भीतरी स्वरूप भी हैं। हमारे स्थूल-सूक्ष्म और कारण तीन प्रकार के शरीर हैं। हर शरीर के अपने अवयव हैं, अपने प्राण हैं। हर व्यक्ति के केन्द्र में षोडशी पुरुष अवस्थित है। हम आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक धरातलों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। इनकी सबकी शक्तियां भिन्न-भिन्न अनुपात में हमारे भीतर कार्य करती हैं।
दुर्गा पूजा में देवी के नौ आवरणों की पूजा की जाती है। सात लोकों द्वारा हमारे कारण और सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। इसमें हमारा योगदान नहीं होता। प्राण रूप सृष्टि अदृश्य है, यह निराकार है। केवल पृथ्वी लोक पर शरीर धारण करने में प्राणी की भूमिका होती है। यह स्थूल सृष्टि नश्वर है। जीव का क्रीड़ा स्थल है। वैसे तो सात लोकों के पार भी सृष्टि है, जो हमारी आत्म-संस्था से जुड़ी है। इनमें आठवां स्तर परात्पर का तथा नवा स्तर निर्विशेष का माना गया है। निर्विशेष, ब्रह्म का वह स्वरूप है जहां माया सुप्त रहती है। स्वयं विष्णु भी निद्रामग्न होते हैं। शास्त्रों में इस काल को कालरात्रि नाम दिया गया है।
सृष्टि के प्रारम्भ में केवल तम था। यह आवरक तत्त्व समस्त प्रकाश को अपने भीतर समाहित किए हुए है। प्रकाश से अंधकार बलवान होता है। सुर से असुर बलवान होता है। अंधकार ही प्रकाश का विरोधी तत्त्व है। इसी अंधकार के आवरण में व्यक्ति पूरी उम्र जीता है। अज्ञान रूपी-अविद्या, अस्मिता, आसक्ति तथा अभिनिवेश के आवरण धर्म-ज्ञान-वैराग्य तथा ऐश्वर्य के प्रकाश को ढक लेते हैं। कालरात्रि का अंधकार वरुण का साम्राज्य है, जो जलों का भी अधिपति है। यह वह काल है जब सूर्य उत्पन्न ही नहीं हुआ। केवल आसुरी सम्पदा कार्य करती है। दैवीभाव में एकमात्र निद्रा देवी रहती है। असुरों के आक्रमणों से व्यथित देवगण इसी कालरात्रि का आह्वान करते हैं विष्णु को जगाने के लिए। विष्णु जागकर मधु-कैटभ (काम) का मोहनी रूप से वध करते हैं। काली रूप में महिषासुर (क्रोध) का और सरस्वती रूप में रक्त-बीज (लोभ) का संहार करते हैं। इन्हीं तीनों देवियों का सम्मिलित स्वरूप दुर्गा है, जो काम-क्रोध-लोभ की प्रतिद्वन्द्वात्मक शक्ति है। प्रकृति स्वयं व्यक्ति के ही कार्यों को प्रभावित करती है। माया सम्पूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करती है।
दुर्गा की आवरण पूजा में नौ आवरणों की पूजा का विधान है। स्वयं दुर्गा यंत्र के केन्द्र में बिन्दु रूप में रहती है। इन्हीं की प्रथम ‘दुर्गा देवी नम:’ नाम से पूजा होती है। बिन्दु के बाहर त्रिकोण में ब्रह्मा-विष्णु-महेश की शक्तियां हैं-विधातृ शक्ति, पालक शक्ति एवं संहारक शक्ति। यह अक्षर प्राण रूप हृदय शक्ति है। इनके बाहर अन्य छह शक्तियां-नन्दजा, रक्तदन्तिका, शाकंभरी, दुर्गा, भीमा तथा भ्रामरी शक्ति रहती हैं। बाहर चौथे आवरण में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, चामुण्डा और लक्ष्मी शक्ति हैं। पंचम आवरण में माया के वे सारे भेद हैं, जो ‘या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता’ इन मंत्रों में विष्णु माया, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, धृति, वृत्ति, श्रुति, स्मृति, दया, तुष्टि, पुष्टि, मातृ शक्ति एवं भ्रान्ति शक्ति के रूप में दुर्गा सप्तशती में वर्णित हैं। ये सभी चौबीस रूप माया के व्यवहार के क्रम हैं। हम देख सकते हैं कि निद्रा से उठते ही क्षुधा घेरती है। यही कामना रूप है माया का। यही ब्रह्म को आवरित रखती है। कामना से मुक्त होने पर ही ब्रह्म प्रकट होता है। दोनों साथ नहीं दिखाई देते।
छठे आवरण में गणपति, क्षेत्रपाल, बटुक, योगिनी शक्तियां हैं। सप्तम आवरण पूर्व, आग्नेयी (दक्षिण-पूर्व), दक्षिण, नैऋति (दक्षिण-पश्चिम), पश्चिम, वायव्यी (पश्चिम-उत्तर), उत्तर, ऐशानी (उत्तर-पूर्व), ऊध्र्व (आकाश) अध: (पाताल) इन दस दिशाओं के दस दिक्पाल-इन्द्र, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण, वायु, कुबेर, सोम, ब्रह्म एवं अनन्त हैं। आठवां आवरण-वज्र शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, अंकुश, गदा, त्रिशूल, पद्म, चक्र जैसे सप्तम आवरण के देवों के अस्त्रों से युक्त है। नवें आवरण में इन्हीं की दस शक्तियां-कादम्बरी, उल्का, कराली, रक्ताक्षी, श्वेताक्षी, हरिताक्षी, यक्षिणी, काली, सुरजेष्ठा और सर्पराज्ञी देवी है।
विषय कितना स्पष्ट है। जिसे बिन्दु या हृदय कहा जा रहा है-वह तो ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र (शिव) का समूह ही है। इन्हीं की शक्तियां तीनों गुणों सत्व-रज-तम के रूप में कार्य करती हैं। इन्हीं का विकास तीसरे-चौथे आवरण में है। पांचवां माया का आवरण शुरू होता है। ये शक्तियां ही भिन्न-भिन्न कामनाएं पैदा करके माया रूप धारण करती हैं। ब्रह्म अपनी प्रकृति के अनुरूप अपना मार्ग तय करता जाता है।
माया तो दूसरे स्तर पर ही कामना पैदा करने लगती है। परात्पर के मन में ही ‘एकोहं बहुस्याम्’ की इच्छा उठती है। इसकी पूर्ति ब्रह्म अपनी प्रकृति के अनुरूप करता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति और माया का ही सम्मिलित रूप है, किन्तु दोनों एक नहीं हैं। ब्रह्म की प्रकृति ब्रह्म के व्यक्तित्व का अंग है। माया व्यक्तित्व नहीं, शक्ति है। प्रकृति को बदलने के लिए तपस्या चाहिए। वरन् मृत्युपर्यन्त नहीं बदलती। माया के साथ सारा संघर्ष प्रकृति का ही है। माया को जीतने के लिए ‘निस्त्रैगुण्य’ होना ही अनिवार्यता है। अत: कृष्ण कह रहे हैं-‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ (गीता २/४५)। अहंकृति, प्रकृति और आकृति साथ रहती हैं, समानता लिए होती हैं। किसी एक को बदलकर शेष दो को भी बदल सकते हैं। किन्तु अहंकृति और आकृति को बदल पाना सहज नहीं है। प्रकृति को ही बदला जा सकता है। प्रकृति के सिमट जाने पर (निस्त्रैगुण्य) अहंकृति के सहित तीनों ब्रह्मलीन हो जाती हैं। जो शेष रहता है, वह ब्रह्म ही है।