जीवन को ज्ञान और कर्म का संतुलन कहा गया है। ज्ञान, बुद्धि का विषय है और कर्म शरीर करता है। सुख-शान्ति इन दोनों का लक्ष्य होता है। किन्तु सुख का अनुभव दोनों को ही नहीं होता। केवल मन ही सुखी या दु:खी हो सकता है। अत: मूल में मन रहता है। जीवन में सुख और दु:ख मन की परिपक्वता पर निर्भर करते हैं। मानव, अन्य प्राणियों से कुछ अधिक विकसित है। शरीर से स्वतंत्र, चिन्तन में स्वतंत्र है। अपने जीवन का लक्ष्य बनाने में भी स्वतंत्र है।
जब मन शान्त होता है तब वह भीतर की ओर मुड़ता है। भीतर की गतिविधियों को जानने लगता है। जीवन की वास्तविकता से उसका सामना होता है। वास्तविकता को बदला तो नहीं जा सकता, किन्तु उसे समझने का मार्ग बदल जाता है। व्यक्ति को अपने आत्मा की तरह ही दूसरों के आत्मा का भी आभास होने लगता है। हर आत्मा का महत्त्व दिखाई पड़ता है। वेद वाक्य है कि आत्मा के जिस अंश का दूसरे के आत्मा में समर्पण किया जाता है, वह वहां दूसरे के आत्मा का सहारा लेकर रहता है। वहीं रहकर प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। आत्मा का वह अंश, श्रित कहलाता है। जिस सूत्र से वह दूसरे के आत्मा से बंधा रहता है, उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धावान, तत्पर और संयमित इन्द्रियों वाला पुरुष ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ज्ञानी पुरुष के कामना, ईष्र्या, द्वेष आदि सभी भाव समाप्त हो जाते हैं।
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर:संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। (गीता ४/३९)
साधारण रूप से अग्नि प्रज्वलित कर उसमें आहुति देने को यज्ञ कहते हैं किन्तु वास्तव में यज्ञ का अर्थ है दो वस्तुओं, क्रियाओं, भावों आदि के मिलने पर नवीन की उत्पत्ति होना। इस दृष्टि से यह समस्त संसार यज्ञ ही है। हमारा शरीर अग्नि है। हमारे चारों ओर जो आकाश है-वही सोम का सागर है। यही सोम, अहर्निश शरीर के ताप को भी सन्तुलित रखता है, शरीर का पोषण भी करता है। यही विष्णु, प्राण है। यही प्रकृति का नित्य यज्ञ है। यज्ञ के लिए दो पदार्थों की आवश्यकता होती है-अग्नि और सोम। अग्नि को भोक्ता तथा सोम को भोग्य कहते हैं। वेद में इनको क्रमश: अन्नाद और अन्न कहा जाता है। इस दृष्टि से वेद वचन है कि ‘अग्निसोमात्मकं जगत्’ अर्थात् यह विश्व अग्नि और सोम से निर्मित हुआ है। यह यज्ञ सृष्टि में हर स्तर पर निरन्तर चल रहा है। यदि परमेष्ठी का सोम सूर्य को न मिले तो वह हमें ताप एवं प्रकाश नहीं दे सकता । इस ताप या आग्नेय तत्त्व की शरीर में ही विद्यमानता रहती है। इसको वैश्वानर अग्नि कहा जाता है। कृष्ण कह रहे है कि अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:। अनुगीता में कहा है कि देह में प्रकाशित होने वाले वैश्वानर अग्नि की सात ज्वालाएं-नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन तथा बुद्धि हैं। इसकी सात समिधाएं क्रमश: सूंघने, पीने, देखने, स्पर्श करने, सुनने तथा मनन करने योग्य और समझने योग्य है। इस वैश्वानर अग्नि (हवन करने वाले) के क्रमश: सूंघने, भक्षण करने, देखने, स्पर्श करने, सुनने, मनन करने तथा समझने वाले सात ऋत्विज (यज्ञकर्ता) कहे जाते हैं।
यहां समिधा सोम है जो भोग्य पदार्थ हैं तथा नेत्र आदि सात अग्नि हैं जो भोक्ता हैं। जब ऋत्विज इस यज्ञ कर्म में अहं भाव को छोड़ देता है। यह मान लेता है कि इन सातों समिधाओं की सात योनियां अर्थात् उत्पत्ति स्थल पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन और बुद्धि हैं। क्योंकि ये सूंघने योग्य, देखने योग्य आदि सभी हवि रूप गुण अग्नि में आहूत होकर अपनी-अपनी योनियों में जन्म लेते हैं। इनसे ही गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, संशय और निष्ठा इन सात विषयों या नवीन पदार्थों की उत्पत्ति होती है। तब ऐसे मुक्त पुरुष का समर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है तथा आहुति भी ब्रह्म है।
‘अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥’ (गीता ९/१६)
जीवन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएं उठती रहती हैं। आशा-निराशा के नाना भाव पैदा होते हैं। सफलता-असफलता के अनेक क्षण आते हैं। इच्छित प्राप्तियां होती भी हैं, नहीं भी होतीं। प्रत्येक के जीवन में होता है यह सब। इन्हीं के कारण मन में कई प्रकार के भाव पैदा होते रहते हैं, अभिव्यक्त भी होते हैं, नहीं भी होते।
सुख-दु:ख का एक कारण है द्ग इनके कारणों और साधनों के प्रति हमारा जुड़ाव। जुड़ाव, मन में प्रतिक्रिया पैदा करता है। वह चाहे राग-द्वेष की हो, लोभ-मोह की हो अथवा ईर्ष्या-परिग्रह की हो। इन्हीं कारणों से जीवन में भय पैदा होता है। मन से सुरक्षा का भाव घटता है। सुख में कमी आती है। विवेकशील दृष्टि सुख और दु:ख को अलग नहीं देखती। ‘समभाव’ या समता ही सुख का मूल-मंत्र है।