अनुच्छेद 370 हटाने और राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो जाने के बाद भाजपा तीसरे बड़े मुद्दे समान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में आगे बढऩे का काम कर रही है। लेकिन इस विषय पर बहस का जो रूप सामने आ रहा है, उससे लगता है कि संसद में इस मुद्दे पर कोई विधेयक आया तो हंगामा तय है। प्रधानमंत्री ने मंगलवार को भोपाल में समान नागरिक संहिता की चर्चा छेड़ी, तो कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया सामने आ गई। वैसे तो राजनीतिक दलों के लिए ऐसे मुद्दे वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनते रहे हैं और इसमें दोराय नहीं कि आगे भी बनेंगे। अहम सवाल यह है कि एक देश में अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने के कानून अलग-अलग क्यों हों? यूसीसी केपक्षधर भी यही कहते हैं कि जब देश के सभी नागरिक सरकारी सुविधाओं का लाभ समान रूप से उठाते हैं, तो उनके लिए कानून भी समान होने चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत भी अनेक बार सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने को कह चुकी है। सरकार को यूसीसी का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की बात भी सुननी चाहिए। इस मुद्दे पर विधेयक लाने से पहले सर्वदलीय बैठक में सरकार को अपनी मंशा साफ करनी चाहिए। सवाल किसी धर्म-समुदाय का नहीं, बल्कि देश का है। इसलिए सभी दलों को विश्वास में लेकर ऐसे मुद्दों पर कानून बनाए जाने चाहिए।
शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश का क्या हश्र हुआ, यह सब जानते हैं। भारत में लोकतंत्र है। हर वर्ग की बात सुनी जानी चाहिए। लेकिन, संवैधानिक प्रावधानों को लेकर किसी तरह का समझौता भी नहीं किया जाना चाहिए। पहले देश है, फिर सरकारें और राजनीतिक दल। यह बात समझने की है कि किसी भी मुद्दे को लटकाए रखने से उसका समाधान नहीं निकल सकता। जरूरत है सार्थक बहस की और ऐसा रास्ता निकालने की, जो सबको स्वीकार्य हो।