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आदिवासी जीवन शैली जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम

वैश्विक स्तर पर इस बात को स्वीकार करना होगा कि आदिवासी समुदाय पर्यावरण से जुड़ी समस्त चुनौतियों का स्थायी और स्थानीय समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। इसके लिए नीतियों और रणनीतियों को तैयार करने, उनकी देखरेख और कार्यान्वयन करने में समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

जयपुरAug 09, 2024 / 09:39 pm

Gyan Chand Patni

जयेश जोशी कृषि मामलों के जानकार, सचिव, वाग्धारा
पूरा विश्व आदिवासी समुदाय के प्रति कृतज्ञ है, जिसने सदियों से प्रकृति को संवारा, उसका संरक्षण किया और सभी संसाधनों को परिष्कृत करते हुए उन्हें आने वाली पीढिय़ों के लिए सहेजा। सवाल यह है कि जैसे हमें अपने पूर्वजों से ये संसाधन प्राप्त हुए हैं, क्या हम उन्हें उसी अवस्था में अपनी भावी पीढ़ी को सौंप पाएंगे? आदिवासी संस्कृति हमेशा पर्यावरण के अनुकूल ही रही है। आदिवासी अपने जीवन की आधारभूत वस्तुओं के लिए प्रकृति के अतिरिक्त किसी अन्य पर आश्रित नहीं रहते। यह समुदाय प्रकृति के सभी घटकों पेड़-पौधों, धरती, सूर्य, नदियों और पहाड़ों का आदर और पूजा करते हैं। ये ही उन्हें आजीविका प्रदान करते हैं। यही प्रकृति व स्वराज के सिद्धांत की पर्यावरण संतुलित जीवन शैली है। यह ऐसी जीवनशैली है जिसके तहत जितना प्रकृति से लिया जाता है, उतना ही किसी न किसी रूप में उसे लौटाया भी जाता है।
भारत में आदिवासी आबादी कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है जबकि राजस्थान में यह आबादी का 13.5 प्रतिशत है। जंगल, जल तथा जमीन संसाधनों के प्राकृतिक संरक्षक माने जाने वाले आदिवासी अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त स्वदेशी ज्ञान के साथ-साथ पारंपरिक प्रथाओं और संस्कृति को संरक्षित करते आ रहे हैं। प्रकृति के प्रति श्रद्धा तथा समुदाय-केंद्रित प्रथाओं में उनकी चक्रीय जीवनशैली का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जो कि गांधी जी की स्वराज आधारित सार्वभौमिकता का प्रदर्शन भी करती है। जल, जमीन, जंगल, जानवर और जैव विविधता को आज भी संरक्षित रखने का श्रेय आदिवासी जीवनशैली को दिया जाता है। यह जीवनशैली सदियों से समाज की सार्वभौमिक जीवनशैली थी परंतु बढ़ते उपभोक्तावाद ने न केवल शहरी बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस चक्रीय जीवनशैली को आघात पहुंचाया है। तमाम बाधाओं के बावजूद इनकी जीवनशैली प्रकृति की समृद्धि का उपहार है।
आज के दौर में जलवायु परिवर्तन के कारण कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का समाधान प्रौद्योगिकी में नहीं, बल्कि इसी चक्रीय जीवनशैली में है। किसी कार्य के लिए न्यूनतम निर्भरता स्वराज का मूल है। इस समुदाय की हलमा प्रथा रचनात्मक कार्य का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह प्रथा प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करना सिखाती है। पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान करने के साथ स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन को भी महत्त्व देती है। कृषि क्षेत्र में वर्षों से यह समुदाय ‘हांगडी खेती’ के माध्यम से मिश्रित खेती कर रहा है, जिससे उनके परिवारों की खाद्य और पोषण सुरक्षा के साथ-साथ मिट्टी की पोषकता भी बढ़ती है। आदिवासी पशुओं के अपशिष्ट से बनी खाद का उपयोग करते हुए मिट्टी के उपजाऊपन को बढ़ा रहे हैं और रासायनिक खादों के अनियंत्रित उपयोग से बच भी रहे हैं। अपनी पारंपरिक पद्धतियों के माध्यम से, वे स्थानीय स्तर पर जल का संरक्षण और जल स्रोतों का पुनर्भरण करते हैं। साथ ही, मिट्टी, गोबर, लकड़ी तथा अन्य सामग्रियों से बनाए गए हवा और रोशनी से भरपूर घरों का निर्माण कर, वे प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी और जुड़ाव की भावना के साथ पर्यावरण संरक्षण में बेहद ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
आदिवासी समुदाय की जीवनशैली में समाहित प्रणालियों तथा प्रथाओं ने प्रकृति को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लम्बे अरसे तक बचा कर रखा है। इन स्थानीय समाधानों में अपार संभावनाएं हैं, इसलिए उन्हें शहरी क्षेत्रों में भी अपनाया जा सकता है। इन प्राचीन प्रथाओं के महत्त्व को स्वीकार करते हुए पारंपरिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान का मिश्रण कर जलवायु परिवर्तन से निपटने की अधिक प्रभावी और टिकाऊ रणनीति बनाई जा सकती है। वैश्विक स्तर पर इस बात को स्वीकार करना होगा कि आदिवासी समुदाय पर्यावरण से जुड़ी समस्त चुनौतियों का स्थायी और स्थानीय समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। इसके लिए नीतियों और रणनीतियों को तैयार करने, उनकी देखरेख और कार्यान्वयन करने में समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

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