बांग्लादेश यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मतुआ धर्म महासंघ के संस्थापक हरिचंद ठाकुर से जुड़े स्मृतिस्थल का 27 मार्च को दौरा कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के गहरे निहितार्थ हैं। यह पहली बार है जबकि भारत का कोई प्रधानमंत्री हरिचंद ठाकुर स्मृतिस्थल (ओराकांडी, ढाका से 190 किमी. दूर) जा रहा है, तो निश्चित ही मतुआ धर्म के अनुयायियों में इसका बड़ा संदेश जाएगा। यह संदेश मोदी ने फरवरी 2019 में हरिचंद ठाकुर की प्रपौत्र वधू और मतुआ धर्म महासंघ की सबसे बड़ी नेता बीनापाणि देवी (बड़ो मां) से मुलाकात कर भी दिया था। बीनापाणि देवी वह पहली व्यक्ति थीं जिन्होंने बांग्लादेश से भारत आए शरणार्थियों को नागरिकता देने की मांग की थी। बंगाल में मतुआ धर्म महासंघ के अनुयायियों की संख्या करीब एक करोड़ से अधिक है।
मतुआ धर्म महासंघ की स्थापना हरिचंद ठाकुर (1882-1878) ने १९वीं सदी के मध्य में पूर्वी बंगाल के फरीदपुर के गोपालगंज में की थी। पूर्व और पश्चिम बंगाल में दलितों को धर्म का अधिकार सबसे पहले हरिचंद ठाकुर के मतुआ संघ ने ही दिया। मतुआ यानी जो मतवाले हैं, जो जाति, धर्म, वर्ण से ऊपर उठे हुए हैं। हरिचंद ने आजीवन अनुसूचित व पिछड़ी जातियों और जनजातियों को अपने मतुआ धर्म में शामिल कर उन्हें आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया। हरिचंद ठाकुर ने मुख में नाम, हाथ में काम और सबको शिक्षा के अधिकार का नारा दिया और दलितों के लिए अनेक स्कूलों की स्थापना की। हरिचंद ने शूद्रों को अपनी संतानों को शिक्षा देने के लिए नारा दिया था प्रयोजन होने पर करो भिक्षा तब भी संतान को दो शिक्षा। धीरे-धीरे हरिचंद के संदेशों का असर होने लगा और मतुआ धर्म महासंघ आकार लेने लगा। हरिचंद ठाकुर के निधन के बाद महासंघ को उनके पुत्र गुरुचंद ठाकुर (1847-1937) ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा था द्ग ‘जार दल नेई, तार बल नेई’, यानी ‘जिनका दल नहीं, उनका बल नहीं।’ पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए गुरुचंद ने भी महासंघ का विस्तार करने के लिए कई स्कूलों की स्थापना की। परवर्ती काल में मतुआ आंदोलन को बढ़ाने का काम गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास, रसीकलाल विश्वास, मुकुंद बिहारी मल्लिक, विराटचंद मंडल और विश्वदेव दास ने किया।
देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल में हिंदुओं पर अत्याचार बढऩे लगा तो मतुआ धर्म महासंघ के अनुयायी बांग्लादेश से भागकर पश्चिम बंगाल समेत भारत के विभिन्न राज्यों का रुख करने लगे। स्वयं गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास भी 13 मार्च 1948 को पश्चिम बंगाल के बनगांव आ गए और एक छोटा-सा घर बनाकर रहने लगे। पूर्वी बंगाल में दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए ही जोगेंद्रनाथ मंडल ने पाकिस्तान की पहली सरकार में मंत्री पद स्वीकार किया था। मतुआ धर्म की तरह जोगेंद्रनाथ मंडल भी बांग्लाभाषी समाज में दलितों के जागरण के लिए समर्पित होकर काम करते रहे थे। मंडल स्वयं नाम शूद्र समुदाय से थे। देश विभाजन होने पर वे पूर्वी बंगाल में ही रह गए। तत्कालीन पूर्वी बंगाल में दलितों की स्थिति में सुधार लाने का सपना लेकर जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान की पहली कैबिनेट में कानून और श्रम मंत्री बने। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद मंडल अपना सपना पूरा नहीं कर सके। मुस्लिम लीग से उनका मोहभंग हुआ, तो मंत्री पद से त्याग पत्र देकर वह पश्चिम बंगाल लौट आए और आम्बेडकर की रिपब्लिकन पार्टी के लिए काम करते रहे। 1968 में वे चल बसे। जोगेंद्रनाथ मंडल जैसे नेताओं और मतुआ धर्म महासंघ के प्रयासों से बंगाल में दलित आंदोलन सिर्फ कोलकाता व आस-पास ही नहीं फैला, उसका विस्तार सुदूर जिलों तक में हो गया। गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास ने 1948 के बाद बंगाल में महासंघ को संगठित करने का निरंतर यत्न किया। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी बीनापाणि देवी (बड़ो मां) मतुआ धर्म की सबसे बड़ी नेता बनीं। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मतुआ धर्म का समर्थन किसी पार्टी के लिए निर्णायक साबित हो सकता है। प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा के दौरान गुरुचंद ठाकुर के स्मृतिस्थल जाने को उसी आईने में देखा जाना चाहिए।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)