विदेशी भाषा में शिक्षा पाने से हमारा स्वतंत्र चिंतन कुण्ठित हो गया है। समूचे राष्ट्र के सांस्कृतिक अभ्युत्थान के लिए आवश्यक है कि हम अपनी भाषाओं को समृद्ध करें। प्रेमचंद का विचार था कि हम भारतीय भाषा के विचार में भी अंग्रेजी के इतने दास हो गए हैं कि अन्य अति धनी तथा सुन्दर भाषाओं का हमें कभी ध्यान नहीं आता।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हिंदी की प्रगति के पक्षधर थे। हिंदी भाषा का यह जागरण कोई आकस्मिक घटना नहीं है। इस जागरण का स्वप्न केशवचन्द्र और विवेकानन्द ने देखा था। यह जागरण दयानंद और तिलक की कल्पना में साकार हुआ था तथा उसकी सारी रूपरेखाएं महात्मा गांधी को ज्ञात थीं। जनता को उसकी भाषा नहीं मिली तो शासन इस देश पर जनता का नहीं, बल्कि उन मु_ी भर लोगों का चलता रहेगा जो आज भी अपने बच्चों को अंग्रेजी की अच्छी शिक्षा दिलवा सकते हैं और जो वोट जनता की भाषा में मांगते हैं और नोट अंग्रेजी में लिखते हैं।
गांधी हिंदी पढ़ाना इसलिए आवश्यक मानते थे क्योंकि अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त बन ही नहीं सकता। उनका मत था- मातृभाषा के ज्ञान के बिना हमारे विचार विकृत हो जाते हैं और हृदय से मातृभूमि का स्नेह जाता रहता है। भारत के साहित्य और धर्मों को विदेशी भाषा के माध्यम से कभी नहीं समझा जा सकता। उपनिवेश में उत्पन्न हुए अपने नव-युवकों की तीव्र बुद्धि की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भी हमें उनमें इस वस्तु की कमी दिखाई देती है कि उन्हें वास्तविक भारतीय विचार, इतिहास और साहित्य का ज्ञान नहीं होता।
यदि विज्ञान की शिक्षा केवल अंग्रेजी में दी जाएगी तो विज्ञान उन्हीं लोगों तक सीमित रह जाएगा जो उसका अध्ययन करेंगे। इसके विपरीत यदि विज्ञान हिंदी के माध्यम से पढ़ाया जाएगा तो विज्ञान के संस्कार सारी जनता में फैल जाएंगे। ‘प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी’ इस नक्शे के साफ हो जाने से प्रत्येक भाषा क्षेत्र में आशा और उत्साह का संचार होने लगा है जो हमारे शुभोदय का संकेत है।
भारतीय संविधान में भी हिंदी के साथ-साथ प्रादेशिक भाषाओं को स्थान दिया गया है। संविधान का अनुच्छेद 345 राज्य की राजभाषा/राजभाषाएं (प्रादेशिक भाषाएं) व अनुच्छेद 350 भाषायी अल्पसंख्यकों की सुविधाओं पर ध्यान देता है। अनुच्छेद 350 में ही प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निर्देश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।
हमें इस बात को स्वीकारना चाहिए कि मातृभाषा का रिश्ता धरती से है। व्यक्ति जिस भौगोलिक परिवेश में पैदा होता है वही भूगोल मातृभाषा का आधार बनता है।
हिंदी में अध्ययन, अध्यापन व शोध होने से हमारा जुड़ाव जड़ों से होगा। अनूदित ज्ञान मर्म को छू नहीं सकता, न ही हममें राष्ट्रीय स्वाभिमान की जोत जगा सकता है। हिंदी हमारी संस्कृति, साहित्य, रीति-रिवाज, परम्पराओं व सदियों से चले आ रहे ज्ञान को प्रवाहित करने वाली अविरल धारा है। विदेशी भाषा से हमें परहेज नहीं है पर उनका हमारे मानस पर हावी होना हमारे लिए एक भाषायी हमले की तरह है।
हिंदी में अध्ययन, अध्यापन व शोध होने से हमारा जुड़ाव जड़ों से होगा। अनूदित ज्ञान मर्म को छू नहीं सकता, न ही हममें राष्ट्रीय स्वाभिमान की जोत जगा सकता है। हिंदी हमारी संस्कृति, साहित्य, रीति-रिवाज, परम्पराओं व सदियों से चले आ रहे ज्ञान को प्रवाहित करने वाली अविरल धारा है। विदेशी भाषा से हमें परहेज नहीं है पर उनका हमारे मानस पर हावी होना हमारे लिए एक भाषायी हमले की तरह है।
किसी एक भाषा का रचनाकार समूचे राष्ट्र की धरोहर हो सकता है। गांधी, टैगोर और मोटुरि सत्यनारायण ने इस बात को समझा और उन्होंने हिंदी भाषा को महत्त्व दिया। हिंदी सारे देश की भाषा है। गांधी जब अंग्रेजी की जगह अपने देश की एक भाषा खोजने लगे, तो हिंदी की तरफ उनका ध्यान इसलिए गया क्योंकि हिंदी में उन्होंने जोडऩे की ताकत देखी। निज भाषा की उन्नति के बिना हमारी प्रगति संभव नहीं है। हिंदी के शब्दों को विश्व समुदाय ने भी स्वीकारा है। आज हिंदी विश्व की लोकप्रिय भाषाओं में से एक है।