चैत्र मास की चन्द्र तिथि यानी चेटीचंड। सिंधी समाज का प्रकृति से जुड़ा का पर्व। यही वह दिन भी है जब सब मिलकर संसार को सुख, शांति और प्रेम का संदेश देने वाले भगवान झूलेलाल का जन्मोत्सव मनाते हैं। झूलेलाल सिंधी समाज के ही नहीं जन-जन के आराध्य भी हैं। इसीलिए चेटीचंड प्रेम-भाईचारे एवं राष्ट्रीय एकता का संदेश देने वाला त्योहार है। चेटीचंड को ‘सिंधी पर्व ‘ या ‘सिंधियत ‘ भी कहा जाता है। भगवान झूलेलाल जल और ज्योति के प्रतीक हैं। यह पूरा संसार जल और ज्योति से ही तो है। प्रकृति से जुड़े ये दोनों ही तत्त्व यदि नहीं हों, तो क्या इस जीवन की कल्पना की जा सकती है। हमारे यहां तो इसीलिए कहा भी गया है, ‘जहां जल और ज्योति, वहीं जगदीश।Ó झूलेलाल जल—ज्योति के रूप में प्रकृति के प्रति निकटता का संदेश भी देते हैं। वे पर्यावरण संरक्षण के साथ सभी जीव—जंतुओं के प्रति करुणा के भाव भी जगाते हैं।
झूलेलाल जलपति वरुण अवतार ही नहीं हंै, भगवान श्री कृष्ण के भी अवतार माने गए हैं। इतिहास के पन्नों को खोलेंगे तो पाएंगे कि आज से कोई 1045 वर्ष पूर्व सिंध (पाकिस्तान) में मुगल बादशाह मिरखशाह के अत्याचारों से जनता बेहद त्रस्त थी। बादशाह हर किसी को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए जनता पर अत्याचार करने लगा। जुल्म जब बढ़ा, तो चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। संकट की इस घड़ी में लोगों ने सिंधु नदी के तट पर पहुंचकर भगवान वरुण देव की पूजा की। उनसे बादशाह के जुल्म से छुटकारा दिलाने की अर्चना की। कहते हैं, पूरे सात दिन तक लोगों ने तब ‘वरुण देवÓ की अर्चा की। भक्तों की पुकार सुन वरुण देवता मछली पर सवार होकर प्रकट हुए और लोगों को आश्वस्त किया कि जल्दी ही वे नसीरपुर शहर में रतन राय के घर जन्म लेंगे। फर उन्होंने माता देवकी की कोख से जिन्म लिया। माता ने बालक को ‘झूलेलालÓ के नाम से पुकारा। बाद में वे जन—जन में इसी नाम से पूजनीय हुए।
भगवान झूलेलाल ने प्रेम और भाईचारे का संदेश देते लोगों का आह्वान किया कि कोई किसी की निंदा न करें। सबके भले के लिए सोचें। प्रकृति और जीव—जंतुओं के प्रति करुणा रखें। आचरण में शुद्धता के साथ हर प्राणी के कल्याण के लिए कार्य करें। जल्दी ही उनके संदेश लोगों में फैल गए। बादशाह को बहुत बुरा लगा कि उसकी बजाय लोग भगवान झूलेलाल को अधिक मानने लगे हैं। बादशाह ने उन्हें पकड़कर बंद करने अपने वजीर और सेना को भेजा। हर बार ऐसा कुछ चमत्कार हुआ कि वजीर और सेना को भयभीत हो लौटना पड़ा। अंत में बादशाह मिरखशाह का सत्ता अहंकार दूर करने के लिए भगवान झूलेलाल ने उसके महल पर ज्योति में निहित अपनी शक्ति से अग्नि वर्षा की और देखते ही देखते बादशाह का महल जलने लगा। बादशाह हार मान उनकी शरण में आ गया। उसने भगवान झूलेलाल के जन्म स्थल पर भव्य-मंदिर का निर्माण कर उसका नाम रखा—’जिंदा पीर ‘, जो सभी की श्रद्धा का केंद्र है।
भगवान झूलेलाल सिंधी समुदाय के ही नहीं संपूर्ण मानवता के लिए पूज्य देव हैं। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देते ‘दरियाही पंथ ‘ की भी स्थापना की। ‘चेटीचंड पर्व ‘ भगवान झूलेलाल की शिक्षाओं को आत्मसात कर प्रकृति से अपनत्व करने की प्रेरणा देने वाला त्योहार है। चेटीचंड पर निकलने वाली शोभायात्रा जन—मन से जुड़े उल्लास की संवाहक है। यह शोभायात्रा किसी एक समुदाय की नहीं होती, सभी समाज मिलकर इसमें भाग लेते हैं। शोभायात्रा उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का एक तरह से नाद है। आइए, प्रकृति से जुड़े इस पर्व की संस्कृति के सनातन मूल्यों में हम रचें और बसें। चेटीचंड की सभी को बहुत शुभकामनाएं। ‘चेटीचंड ज्यों लख लख बधाइयां आठव ‘।
झूलेलाल जलपति वरुण अवतार ही नहीं हंै, भगवान श्री कृष्ण के भी अवतार माने गए हैं। इतिहास के पन्नों को खोलेंगे तो पाएंगे कि आज से कोई 1045 वर्ष पूर्व सिंध (पाकिस्तान) में मुगल बादशाह मिरखशाह के अत्याचारों से जनता बेहद त्रस्त थी। बादशाह हर किसी को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए जनता पर अत्याचार करने लगा। जुल्म जब बढ़ा, तो चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। संकट की इस घड़ी में लोगों ने सिंधु नदी के तट पर पहुंचकर भगवान वरुण देव की पूजा की। उनसे बादशाह के जुल्म से छुटकारा दिलाने की अर्चना की। कहते हैं, पूरे सात दिन तक लोगों ने तब ‘वरुण देवÓ की अर्चा की। भक्तों की पुकार सुन वरुण देवता मछली पर सवार होकर प्रकट हुए और लोगों को आश्वस्त किया कि जल्दी ही वे नसीरपुर शहर में रतन राय के घर जन्म लेंगे। फर उन्होंने माता देवकी की कोख से जिन्म लिया। माता ने बालक को ‘झूलेलालÓ के नाम से पुकारा। बाद में वे जन—जन में इसी नाम से पूजनीय हुए।
भगवान झूलेलाल ने प्रेम और भाईचारे का संदेश देते लोगों का आह्वान किया कि कोई किसी की निंदा न करें। सबके भले के लिए सोचें। प्रकृति और जीव—जंतुओं के प्रति करुणा रखें। आचरण में शुद्धता के साथ हर प्राणी के कल्याण के लिए कार्य करें। जल्दी ही उनके संदेश लोगों में फैल गए। बादशाह को बहुत बुरा लगा कि उसकी बजाय लोग भगवान झूलेलाल को अधिक मानने लगे हैं। बादशाह ने उन्हें पकड़कर बंद करने अपने वजीर और सेना को भेजा। हर बार ऐसा कुछ चमत्कार हुआ कि वजीर और सेना को भयभीत हो लौटना पड़ा। अंत में बादशाह मिरखशाह का सत्ता अहंकार दूर करने के लिए भगवान झूलेलाल ने उसके महल पर ज्योति में निहित अपनी शक्ति से अग्नि वर्षा की और देखते ही देखते बादशाह का महल जलने लगा। बादशाह हार मान उनकी शरण में आ गया। उसने भगवान झूलेलाल के जन्म स्थल पर भव्य-मंदिर का निर्माण कर उसका नाम रखा—’जिंदा पीर ‘, जो सभी की श्रद्धा का केंद्र है।
भगवान झूलेलाल सिंधी समुदाय के ही नहीं संपूर्ण मानवता के लिए पूज्य देव हैं। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देते ‘दरियाही पंथ ‘ की भी स्थापना की। ‘चेटीचंड पर्व ‘ भगवान झूलेलाल की शिक्षाओं को आत्मसात कर प्रकृति से अपनत्व करने की प्रेरणा देने वाला त्योहार है। चेटीचंड पर निकलने वाली शोभायात्रा जन—मन से जुड़े उल्लास की संवाहक है। यह शोभायात्रा किसी एक समुदाय की नहीं होती, सभी समाज मिलकर इसमें भाग लेते हैं। शोभायात्रा उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का एक तरह से नाद है। आइए, प्रकृति से जुड़े इस पर्व की संस्कृति के सनातन मूल्यों में हम रचें और बसें। चेटीचंड की सभी को बहुत शुभकामनाएं। ‘चेटीचंड ज्यों लख लख बधाइयां आठव ‘।