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सतत विकास लक्ष्य में शामिल हैं भारतीय संस्कृति के विचार

भारतीय जीवनशैली में प्राणी मात्र के कल्याण एवं पर्यावरण की सुरक्षा से संबंधित व्यवहार सम्मिलित है। मुश्किल यह है कि हम लोग दिखावे के जीवन व पाश्चातात्य जीवनशैली की ओर आकर्षित होकर अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर हो रहे हंै, जो न केवल स्वयं के लिए बल्कि संसार के प्रत्येक जीव व तत्वों के लिए हानिकारक है।

जयपुरNov 18, 2024 / 09:58 pm

Gyan Chand Patni

डॉ. प्रवीण कुमार
सतत विकास लक्ष्य कार्यान्वयन केंद्र, जयपुर
सतत विकास लक्ष्य-2030 का विचार संयुक्त राष्ट्र महासभा के वर्ष 2015 में हुए सम्मेलन के एक एजेंडे के तहत सामने आया था। यह विचार वर्तमान में मानवजाति ही नहीं पूरी पृथ्वी पर आ रहे संकटों से निपटने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों (सीओपी) में हुई चर्चाओं के कारण यह विचार आगे बढ़ा। इस सतत विकास लक्ष्य-2030 के एजेंडे में 17 गोल व उनसे संबद्ध 169 टारगेट रखे गए हंै। इसमें पर्यावरण एवं पृथ्वी की रक्षा करने का मुख्य लक्ष्य रखा गया है। सभी की सामूहिक भागीदारी से एक शांति एवं न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर सभी लोगों के लिए समृद्ध एवं स्वस्थ जीवन की आशा की गई है। सतत विकास के लक्ष्य का विचार दुनिया के लिए एक नया विचार हो सकता है लेकिन यह भारतीय संस्कृति, समाज के व्यवहार और विचारों में पूर्व मेें ही सम्मिलित है। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित दोहा भारतीय संस्कृति में सतत विकास के भाव को पूर्व में होना दृष्टित करता है- अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ।। नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ।।
अर्थात् किसी की भी कम आयु में मृत्यु न हो, सभी निरोगी एवं बलवान हो, कोई गरीब व दुखी न हो, न कोई अनपढ़ व अज्ञानी हो। उक्त विचार सतत विकास लक्ष्य एजेंडे के विचार को पूर्ण रूप में समाहित किए हुए हैं। भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे उदाहरण एवं काव्यों में ऐसे कई उद्धरण हंै, जिनमें समाज के कल्याण, पर्यावरण की रक्षा एवं न्यायपूर्ण एवं समानतामूलक जीवन के बारे में कहा गया है। महिलाओं के सम्मान के संदर्भ में मनुस्मुति में उल्लेख किया गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’। वृक्षों के महत्त्व के लिए शास्त्रों में उल्लेखित किया गया है कि, ‘दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावडिय़ों के बराबर एक तालाब है, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।
भारतीय संस्कृति में विभिन्न पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक तत्वों के महत्त्व को पूजा-पाठ के माध्यम से व्यक्त किया गया है। प्रकृति से सन्तुलन के नियमों का विभिन्न ऋचाओं में उल्लेख किया गया है। इनमें वृक्षारोपण करने को आवश्यक तथा पेडों को काटने को निषेध किया गया हैं। पेड़ों, नदियों, पर्वतों एवं सभी जीवों की महत्ता को ध्यान में रखकर उनकी पूजा आदि करने के संदर्भ में भारतीय शास्त्रों में कहा गया है। पीपल जैसे पेड़ को विशेष स्थान दिया गया है। उसकी विशेष पूजा का प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे उदाहरण शास्त्रों, पुराणों एवं अन्य रचनाओं में है जिनमें सतत विकास लक्ष्यों की भावना निहित है। भारतीय संस्कृति का विचार मन में आते ही शांति और सौहार्द की संस्कृति का अहसास होता है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें हर प्राणी चाहे वह मानव हो या अन्य कोई जीव-जन्तु सभी के कल्याण की कामना की जाती है। भारतीय दर्शन का ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का विचार विश्व प्रसिद्ध है। इसमें सम्पूर्ण संसार को अपना परिवार माना गया है। इसका आशय यह भी है कि किसी एक व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य का संसार के दूसरे प्राणियों पर भी प्रभाव पड़ता है, चाहे वह किसी भी देश में निवास करता हो। हर व्यक्ति के क्रियाकलाप पूरी पृथ्वी के पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। अत: सभी से यह अपेक्षा की गई है कि वे सामंजस्यतापूर्ण एवं पर्यावरण अनुकूल व्यवहार के साथ जीवनयापन करें।
भारतीय जीवनशैली में प्राणी मात्र के कल्याण एवं पर्यावरण की सुरक्षा से संबंधित व्यवहार सम्मिलित है। मुश्किल यह है कि हम लोग दिखावे के जीवन व पाश्चातात्य जीवनशैली की ओर आकर्षित होकर अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर हो रहे हंै, जो न केवल स्वयं के लिए बल्कि संसार के प्रत्येक जीव व तत्वों के लिए हानिकारक है। अत: हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की ओर लौटना चाहिए ताकि सभी का कल्याण हो सके। साथ ही हर किसी को इनको आत्मसात करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

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