कभी शॉर्ट फिल्में किसी खास उद्देश्य से ही बनाई जाती थीं, आमतौर पर अध्ययन या प्रचार के लिए। लेकिन, बीते कुछ वर्षों में शॉर्ट फिल्में एकदम नए रूप में सामने आईं। एक सामाजिक दबाव बनाने के साधन के रूप में यूट्यूब जैसे-जैसे अपनी स्थिति सशक्त करता गया फिल्मकारों को भी इसके महत्त्व का अहसास होता गया। उन्हें लगा इस तरह के मंचों से वे भी अपने मन की बात कर सकते हैं, जो और जिस तरह कहने की इजाजत सिनेमा का बाजार नहीं देता है। आश्चर्य नहीं कि आज वे यहां अपनी तमाम विविधताओं के साथ दिखाई दे रहे हैं, 10 से 30 मिनट की इन फिल्मों में सस्पेंस भी है, हास्य और संवेदना भी है। सबसे बढ़कर हिन्दी सिनेमा से गायब हो रही कहानी को भी ये केंद्र में लाने की कोशिश करती दिखती हैं। शायद यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में आज ये मुख्यधारा की फिल्मों से अधिक सम्मानित और प्रशंसित हो रही हैं।राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के बाद अब फिल्मफेयर को भी शॉर्ट फिल्मों के लिए अवार्ड की विशेष श्रेणी बनानी पड़ी।
ऐसी ही एक विलक्षण फिल्म हाल ही में ‘हॉट स्टार’ पर रिलीज हुई है,’लाली’। अभिरुप बसु निर्देशित इस फिल्म में एक ही अभिनेता हैं, पंकज त्रिपाठी। बंगाल की पृष्ठभूमि में 35 मिनट की यह पूरी फिल्म एक लोकेशन और एक अभिनेता के साथ फिल्मायी गई है। बगैर एक भी संवाद के सिर्फ अपने चेहरे के बदलते इमोशन के बल पर पंकज एक व्यक्ति की इच्छाओं और अपेक्षाओं को जिस सहजता से दर्शकों तक संप्रेषित करते हैं, उससे एक फीचर फिल्म सा संतोष मिलता है। फिल्म में बैकग्राउंड संगीत के स्थान पर लोकेशन साउंड के रूप में रेडियो, लाउडस्पीकर, गाडियों, बैंड पार्टी की आवाजों का उपयोग फिल्म को एक अलग ही विशिष्टता देता है। यह बड़ी भले नहीं हो, एक संपूर्ण फिल्म अवश्य कही जा सकती है। हाल के दिनों में ही अर्पित गंगवार की ‘शिकायत’, रोहित सिंह की ‘यक्ष’, अभिनव सिंह की ‘यात्री कृपया ध्यान दें’, जैसी शॉर्ट फिल्म लगातार नई कहानियों, नई प्रस्तुतियों के साथ मुख्यधारा को चुनौती देते आ रही हैं। वास्तव में अमेजन, हॉट स्टार, एम एक्स प्लेयर, नेटफ्लिक्स जैसी कंपनियों के सामने आने के बाद शॉर्ट फिल्मों के आर्थिक पहलू भी सामने आने लगे हैं। आश्चर्य नहीं कि मोहन अगाशे, मनोज बाजपेयी, तापसी पन्नू, पंकज त्रिपाठी, परिणीति चोपड़ा, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे जाने-पहचाने चेहरे शॉर्ट फिल्मों में आसानी से देखे जाने लगे हैं।
शॉर्ट फिल्मों के विस्तार का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिनेमा की सस्ती होती तकनीक भी है। पहले के बड़े कैमरे रॉ स्टॉक, रेकॉर्डिंग स्टूडियो के बरक्स आज एक बेहतर डीएसएलआर कैमरे से मेमोरी कार्ड पर फिल्म शूट करने और अपने लैपटॉप पर डाउनलोडेड सॉफ्टवेयर से एडिट करने की सुविधा हमें हासिल है।
यह वाकई सच है कि तकनीक ने सही अर्थों में सिनेमा में जनतंत्र ला दिया है, जिसे सोशल मीडिया पूर्णता दे रहा है। यह सिनेमा एक सेफ्टीवॉल्व है, जो फिल्मकारों की रचनात्मक बेचैनी शांत करता है, वहीं ‘लाली’ और ‘पुराना प्यार’ जैसी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से ऊबे दर्शकों को सुकून भी देती हैं।
ऐसी ही एक विलक्षण फिल्म हाल ही में ‘हॉट स्टार’ पर रिलीज हुई है,’लाली’। अभिरुप बसु निर्देशित इस फिल्म में एक ही अभिनेता हैं, पंकज त्रिपाठी। बंगाल की पृष्ठभूमि में 35 मिनट की यह पूरी फिल्म एक लोकेशन और एक अभिनेता के साथ फिल्मायी गई है। बगैर एक भी संवाद के सिर्फ अपने चेहरे के बदलते इमोशन के बल पर पंकज एक व्यक्ति की इच्छाओं और अपेक्षाओं को जिस सहजता से दर्शकों तक संप्रेषित करते हैं, उससे एक फीचर फिल्म सा संतोष मिलता है। फिल्म में बैकग्राउंड संगीत के स्थान पर लोकेशन साउंड के रूप में रेडियो, लाउडस्पीकर, गाडियों, बैंड पार्टी की आवाजों का उपयोग फिल्म को एक अलग ही विशिष्टता देता है। यह बड़ी भले नहीं हो, एक संपूर्ण फिल्म अवश्य कही जा सकती है। हाल के दिनों में ही अर्पित गंगवार की ‘शिकायत’, रोहित सिंह की ‘यक्ष’, अभिनव सिंह की ‘यात्री कृपया ध्यान दें’, जैसी शॉर्ट फिल्म लगातार नई कहानियों, नई प्रस्तुतियों के साथ मुख्यधारा को चुनौती देते आ रही हैं। वास्तव में अमेजन, हॉट स्टार, एम एक्स प्लेयर, नेटफ्लिक्स जैसी कंपनियों के सामने आने के बाद शॉर्ट फिल्मों के आर्थिक पहलू भी सामने आने लगे हैं। आश्चर्य नहीं कि मोहन अगाशे, मनोज बाजपेयी, तापसी पन्नू, पंकज त्रिपाठी, परिणीति चोपड़ा, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे जाने-पहचाने चेहरे शॉर्ट फिल्मों में आसानी से देखे जाने लगे हैं।
शॉर्ट फिल्मों के विस्तार का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिनेमा की सस्ती होती तकनीक भी है। पहले के बड़े कैमरे रॉ स्टॉक, रेकॉर्डिंग स्टूडियो के बरक्स आज एक बेहतर डीएसएलआर कैमरे से मेमोरी कार्ड पर फिल्म शूट करने और अपने लैपटॉप पर डाउनलोडेड सॉफ्टवेयर से एडिट करने की सुविधा हमें हासिल है।
यह वाकई सच है कि तकनीक ने सही अर्थों में सिनेमा में जनतंत्र ला दिया है, जिसे सोशल मीडिया पूर्णता दे रहा है। यह सिनेमा एक सेफ्टीवॉल्व है, जो फिल्मकारों की रचनात्मक बेचैनी शांत करता है, वहीं ‘लाली’ और ‘पुराना प्यार’ जैसी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से ऊबे दर्शकों को सुकून भी देती हैं।