वन-तल एवं झाड़ीनुमा वनस्पति की किसी भी जंगल को बनाने एवं संरक्षित रखने में सबसे अहम भूमिका होती है। किसी भी जगह की जलवायु और मिट्टी की विशेषता यह तय करती है कि वहां के जंगल में ये तीन परतें कैसे विकसित होंगी। राजस्थान में पाए जाने वाले उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन की तुलना हम कर्नाटक के उष्णकटिबंधीय वर्षा-वन से या फिर हिमालय के शुष्क शीतोष्ण वन से नहीं कर सकते। भारत में 200 से भी अधिक विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते है जिनमें जैव-विविधता भी बहुत भिन्न है। ऐसे में कई प्राकृतिक वन ऐसे होंगे जो झाड़ीनुमा एवं खुले वन की तरह नजर आएंगे। राजस्थान में पाए जाने वाले ओरण को ही उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। यहां की पारिस्थितिकी बहुत ही अनोखी एवं खास जैव विविधता को आसरा देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘गोडावण’ है जो अब राजस्थान के झाड़ीनुमा जंगलों में ही मिलता है, जहां बड़े पेड़ बहुत कम मिलते है। इसकी संख्या अब लगभग 100 रह गई है और यह आसपास के राज्य जैसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से विलुप्त हो चुके हैं जिसका एक महत्त्वपूर्ण कारण पौधरोपण भी माना गया है। अगर हम ग्रीन क्रेडिट के दिशा निर्देश मानें तो ऐसे तमाम झाड़ीनुमा और खुले मैदान में पौधारोपण के लिए मुहैया करवाए जा सकते हैं।
दिशानिर्देशों के तहत उपयोग किए जाने वाले शब्द जैसे खुले वन, झाड़ीदार भूमि, बंजर भूमि, अवक्रमित भूमि जैसे शब्द भी कानूनी दृष्टिकोण से अस्पष्ट हैं। कानून में स्पष्टता की कमी के कारण इसकी व्यापक व्याख्या होना स्वाभाविक है। हमारे प्राकृतिक वनों के पारिस्थितिकी तंत्र पर पौधरोपण से प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडऩा चाहिए। उच्चतम न्यायालय के 1996 दिशा-निर्देशों के तहत राज्य सरकारों को अवक्रमित वनों की पहचान कर उसे रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। पिछले 27 वर्षों में भी राज्यों द्वारा यह रिपोर्ट प्रस्तुत करने में विफलता दर्शाती है कि ऐसे अवक्रमित वनों की पहचान करना कितना कठिन है। ऐसी स्थिति में इस ‘पौधरोपण कानून’ से जैव विविधता समृद्ध पारिस्थितिक क्षेत्र एवं स्थानीय समुदायों को आजीविका पर असर पडऩे की आशंका बहुत बढ़ जाती है। केवल पेड़ों की संख्या पर निर्भर रहना मौजूदा पारिस्थितिकी तंत्रों के भीतर जटिल संरचना और प्राकृतिक संतुलन की उपेक्षा करता है।
एक स्वस्थ वन का अर्थ सिर्फ पेड़ ही नहीं होते। इसमें वन तल, झाडिय़ों और पेड़ों के बीच एक जटिल परस्पर क्रिया भी शामिल है, जो सभी प्रजातियों की एक विस्तृत शृंखला के लिए महत्त्वपूर्ण आवास प्रदान करते हैं। यह महत्त्वपूर्ण है कि खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को पौधरोपण से बाहर रखने के लिए नियमों में संशोधन किया जाए एवं पौधरोपण नीतियों में बदलाव कर जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। संसाधनों के दुरुपयोग और पारिस्थितिक क्षति को रोकने के लिए राज्यों की पारदर्शिता और स्थानीय समुदायसिर्फ पेड़ों की संख्या बढ़ाने से पूरा नहीं होगा वन विकास का सपना भा रत सरकार ने ग्रीन के्रडिट प्रोग्राम (जीसीपी) के अंतर्गत बाजार आधारित तंत्र स्थापित करने के उद्देश्य से अक्टूबर 2023 में ग्रीन क्रेडिट नियम अधिसूचित किया है। जीसीपी के तहत वृक्षारोपण के लिए दिशा-निर्देशों को अधिसूचित भी कर दिया गया है। वृक्षारोपण से अर्जित ‘ग्रीन क्रेडिट’ जंगलों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए उद्योगों द्वारा खरीदने-बेचने की भी अनुमति है। यह वन विभाग को अपने प्रशासनिक और प्रबंधन के अंतर्गत खुले वन, झाड़ीदार भूमि, बंजर भूमि, अवक्रमित भूमि और जल ग्रहण क्षेत्र की श्रेणी में आने वाली भूमि की पहचान करने का आदेश देता है। हालांकि पर्यावरणविद इसे गैर-वैज्ञानिक एवं पारिस्थितिक रूप से हानिकारक मान रहे हैं। यह समझना जरूरी है कि सिर्फ पौधरोपण करने से जंगल का निर्माण नहीं हो सकता। किसी भी जंगल के निर्माण में पेड़ सबसे बाद में आते हैं और इनकी मौजूदगी परिपक्व जंगल का प्रतीक होती है। प्राकृतिक वनों में वनस्पतियों की कम से कम तीन परतें होती हैं, जिनमें सबसे नीचे आता है ‘वन-तल’ जो कि मिट्टी एवं जड़ी-बूटियों से बना होता है। इसके बाद झाडिय़ां और फिर आते हैं पेड़।
वन-तल एवं झाड़ीनुमा वनस्पति की किसी भी जंगल को बनाने एवं संरक्षित रखने में सबसे अहम भूमिका होती है। किसी भी जगह की जलवायु और मिट्टी की विशेषता यह तय करती है कि वहां के जंगल में ये तीन परतें कैसे विकसित होंगी। राजस्थान में पाए जाने वाले उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन की तुलना हम कर्नाटक के उष्णकटिबंधीय वर्षा-वन से या फिर हिमालय के शुष्क शीतोष्ण वन से नहीं कर सकते। भारत में 200 से भी अधिक विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते है जिनमें जैव-विविधता भी बहुत भिन्न है। ऐसे में कई प्राकृतिक वन ऐसे होंगे जो झाड़ीनुमा एवं खुले वन की तरह नजर आएंगे। राजस्थान में पाए जाने वाले ओरण को ही उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। यहां की पारिस्थितिकी बहुत ही अनोखी एवं खास जैव विविधता को आसरा देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘गोडावण’ है जो अब राजस्थान के झाड़ीनुमा जंगलों में ही मिलता है, जहां बड़े पेड़ बहुत कम मिलते है। इसकी संख्या अब लगभग 100 रह गई है और यह आसपास के राज्य जैसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से विलुप्त हो चुके हैं जिसका एक महत्त्वपूर्ण कारण पौधरोपण भी माना गया है। अगर हम ग्रीन क्रेडिट के दिशा निर्देश मानें तो ऐसे तमाम झाड़ीनुमा और खुले मैदान में पौधारोपण के लिए मुहैया करवाए जा सकते हैं।
दिशानिर्देशों के तहत उपयोग किए जाने वाले शब्द जैसे खुले वन, झाड़ीदार भूमि, बंजर भूमि, अवक्रमित भूमि जैसे शब्द भी कानूनी दृष्टिकोण से अस्पष्ट हैं। कानून में स्पष्टता की कमी के कारण इसकी व्यापक व्याख्या होना स्वाभाविक है। हमारे प्राकृतिक वनों के पारिस्थितिकी तंत्र पर पौधरोपण से प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडऩा चाहिए। उच्चतम न्यायालय के 1996 दिशा-निर्देशों के तहत राज्य सरकारों को अवक्रमित वनों की पहचान कर उसे रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। पिछले 27 वर्षों में भी राज्यों द्वारा यह रिपोर्ट प्रस्तुत करने में विफलता दर्शाती है कि ऐसे अवक्रमित वनों की पहचान करना कितना कठिन है। ऐसी स्थिति में इस ‘पौधरोपण कानून’ से जैव विविधता समृद्ध पारिस्थितिक क्षेत्र एवं स्थानीय समुदायों को आजीविका पर असर पडऩे की आशंका बहुत बढ़ जाती है। केवल पेड़ों की संख्या पर निर्भर रहना मौजूदा पारिस्थितिकी तंत्रों के भीतर जटिल संरचना और प्राकृतिक संतुलन की उपेक्षा करता है। एक स्वस्थ वन का अर्थ सिर्फ पेड़ ही नहीं होते। इसमें वन तल, झाडिय़ों और पेड़ों के बीच एक जटिल परस्पर क्रिया भी शामिल है, जो सभी प्रजातियों की एक विस्तृत शृंखला के लिए महत्त्वपूर्ण आवास प्रदान करते हैं।
यह महत्त्वपूर्ण है कि खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को पौधरोपण से बाहर रखने के लिए नियमों में संशोधन किया जाए एवं पौधरोपण नीतियों में बदलाव कर जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। संसाधनों के दुरुपयोग और पारिस्थितिक क्षति को रोकने के लिए राज्यों की पारदर्शिता और स्थानीय समुदाय के पारंपरिक प्रबंधन एवं वैज्ञानिक जानकारियों को कानून में शामिल करने की आवश्यकता है। देबादित्यो सिन्हा पर्यावरणविद एवं विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में ‘जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र’ टीम के लीडर के पारंपरिक प्रबंधन एवं वैज्ञानिक जानकारियों को कानून में शामिल करने की आवश्यकता है।
– देबादित्यो सिन्हा
(पर्यावरणविद एवं विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में ‘जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र’ टीम के लीडर)
– देबादित्यो सिन्हा
(पर्यावरणविद एवं विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में ‘जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र’ टीम के लीडर)